उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘क्या वह बहुत सुन्दर है?’’
‘‘हाँ, सुन्दर तो बहुत है।’’
‘‘मुझसे भी अधिक सुन्दर है क्या?’’
‘‘मैंने उसके मुख पर ध्यान से देखकर कहा, ‘तुम उससे प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकती। वह तुमसे बहुत ही सुन्दर है।’’
‘‘इससे उसका मुख उतर गया। वह खड़ी हो मेरा मुख देखती रह गई। मैं उसके मन के भावों को अभी समझने का प्रयत्न कर ही रहा था कि उसने कहा, ‘‘मेरा नग्न चित्र भी बनायेंगे क्या?’’
‘‘मुझे नग्न-स्त्रियों के चित्र बनाने में रुचि नहीं है। मेनका, मेरा अभिप्राय उस कथित मेनका से है, का चित्र मैं सुरराज के आदेश से बना रहा हूँ।’’
‘‘इस समय हमारे सामने वह स्त्री, जिस पर मेरा गुप्तचर होने का सन्देह था, आमने-सामने देखती हुई निकल गई। मैंने नीलिमा से कहा, ‘मैं समझता हूँ कि यही वह स्त्री है जो हमारा पीछा कर रही है।’’
‘‘नीलिमा ने भयभीत हो कहा, ‘इस स्त्री को मैं जानती हूँ। यह देवराज इन्द्र के प्रांगण की सेविका है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि वह स्त्री, जिसका आप चित्र बनाते रहे हैं, अवश्य कोई देवराज की प्रिय अप्सराओं में से है।’’
‘‘एक-दो-क्षण तक वह मुझको देखती रही और फिर बोली, अच्छा मैं चलती हूँ, अब मैं आपसे नहीं मिलूँगी।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मुझे अपने जीवन का भय हो गया है। क्या जाने आप मुझसे मिलने आकर देवराज को रुष्ट कर रहे हों।’’
‘‘मैं अभी उसकी बात का उत्तम भी नहीं दे पाया था कि वह एक ओर को चल दी। मैं समझ गया कि वह देवराज की कोप-भाजन नहीं बनना चाहती।’’
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