उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इस पर वह विस्मय से मेरा मुख देखती रह गई। मैंने चित्रकारिता की वस्तुओं को समेटना आरम्भ कर दिया तो वह माथे पर त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘क्या वह देवी मुझसे भी अधिक सुन्दर है।’’
‘‘शरीर से तो नहीं परन्तु मन से वह अतीव सुन्दर है।’’
‘‘कौन है वह?’
‘‘उग्रश्रवा की पत्नी नीलिमा।’’
‘‘क्या श्रेष्ठता है उसके मन की?’’
‘‘वह तुम्हारी तरह कपड़े उतारकर नग्न नहीं होती।’’
‘आप उसके घर गये हैं क्या?’’
‘‘नहीं, गया तो नहीं। आज वह अपने घर ले जाने वाली है।’’
‘‘तो जाओ। मैल के कीड़े मैल ही में रहना पसन्द करते हैं।’’
‘‘रुष्ट हो गई हो देवीजी!’ उसके क्रोध करने से मेरा चित्त स्थिर हो रहा था। और मैं अपने मन के आवेगों पर नियन्त्रण पा रहा था।’’
‘‘उसने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया और चुपचाप कपड़े पहनने लगी। मैं इन्द्र-भवन से निकला तो मुझको सन्देह हो गया कि कोई स्त्री मेरा पीछा कर रही है। मैं उस उद्यान की ओर चल पड़ा जिसमें पिछले दिन मुझे उग्रश्रवा और उसकी पत्नी मिले थे। आज वहाँ नीलिमा अकेली ही मिली। मैं और वह उद्यान में टहलने लगे। नीलिमा को मेरे पहुँचने पर अतीव प्रसन्नता हुई। उसने मुझसे पूछा, ‘आज तो आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार करेंगे न?’’
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