उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैं तो चाहती हूँ कि आप पूर्ण मेनका को चित्रित कीजिए।’’
‘‘इतना कहकर वह अवस्त्र हो गई। मैंने प्रथम बार ही एक युवा लड़की को एड़ी से चोटी तक अवस्त्र देखा था और जो कामवेग मेरे मन में उठा था उसका वर्णन नहीं कर सकता। मैं महर्षि विश्वामित्र के मोह में फँस जाने पर उनकी हँसी उड़ाया करता था, परन्तु इस मेनका को देखकर तो राजर्षि क्षम्य प्रतीत हुए। इस पर भी मैंने अपने मन के संकल्प को, कि मुझे प्रलोभनों पर विजय पानी है, और भी अधिक दृढ़ कर लिया और उस सुन्दरी का चित्र बनाने लगा। एक पहर तक मैं रंग और तूलिका से खेलता रहा। पहले तो मेरे मन की चंचल अवस्था के कारण चित्र बन नहीं रहा था, परन्तु धीरे-धीरे मेरे, मन स्वस्थ होता गया और मैं सामने खड़ी सुन्दरी की प्रतिलिपि अपने सामने पत्रक पर अंकित करने में सफल हो गया। जब प्रकाश कम हुआ तो मैंने तुलिका रख दी और कह दिया, शेष कल।’’
‘‘वह अपनी मुद्रा, जिसमें कि वह खड़ी थी, छोड़ उसी अवस्था में मेरे सामने नृत्य करने लगी। खड़े-खड़े उसकी टाँगें अकड़ गई थीं।’’
‘‘तत्पश्चात् वह मेरे समीप आ मेरा काम देखने लगी। चित्र अभी समाप्त नहीं हुआ था। इस पर भी उसका रेखाचित्र बन चुका था। वह उसे देखकर मुग्ध हो गई और बोली, ‘वास्तव में आप बहुत ही उच्चकोटि के चित्रकार हैं।’’
‘‘देवलोक की सर्वश्रेष्ठ और सर्वांग सुन्दरी को, सर्वथा नग्न अपने इतने समीप, जहाँ से उसकी साँसों की उष्णता अनुभव हो रही थी, खड़ा-देख मेरी चंचलता अतिशय बढ़ती जाती थी। इस समय पुनः मैंने अपने संकल्प की दृढ़ता को ध्यान से रख कहा, ‘अच्छा मेनका! अब वस्त्र पहन लो। मुझे तो प्रासाद से बाहर एक देवी से मिलने जाना है।’’
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