उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैंने उसे आसन देकर बैठाया और उसके द्वारा लाये गए सामान की परीक्षा की। ये सभी बहुत बढ़िया थे। उन्हें देख मेरे दाहिने हाथ में स्पन्दन होने लगा और मेरे हाथ में पड़ी तूलिका चलने के लिए मचलने लगी।’’
‘‘मैंने उस युवती के मुख पर देखा। वह अद्वितीय सुन्दरी थी। इस पर भी मैंने उससे कहा, ‘यदि आदेश है कि आपको सर्वप्रथम चित्रित करूँ तो मैं प्रयत्न करूँगा कि आपके सौन्दर्य के साथ न्याय कर सकूँ, इस पर भी मेरी इच्छा थी कि मैं देवपुरी के प्राकृतिक तथा मानव-निर्मित सुग्दर स्थलों को चित्रित करूँ। देखो देवि! चित्र तो उसका खींचा जाता है, जिसके आँखों से ओझल हो जाने की सम्भावना होती है। आप तथा आप-सदृश अन्य सुन्दरियाँ तो यहाँ इतनी बहुलता में हैं कि उनके चित्रों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इस देवलोक में छींक मारें तो दस सुन्दरियाँ सामने खड़ी दिखाई देंगी। परन्तु प्राकृतिक दृश्य स्थावर है और मैं जब यहाँ से जाऊँगा तो उन दर्शनीय स्थानों के मनोहर दृश्य अपने साथ ले जाना चाहूँगा।’’
‘‘किन्तु यहाँ के चित्र तो आप बाहर नहीं ले जा सकेंगे।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वह इसलिए कि यदि अन्य देशों के निवासियों को यहाँ के सौन्दर्य का ज्ञान हो जाये तो वे यहाँ पर आक्रमण कर यहाँ के सौन्दर्य को लूटकर ले जाने की इच्छा करेंगे। आज से कई सौ वर्ष पूर्व एक नहुष नामक राजा ने यही किया था। तब से हमारे राज्य की नीति यह है कि यहाँ की कोई सूचना हम बाहर नहीं जाने देते।’’
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