उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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‘‘देखिये वैद्यजी! मैं उस समय भी यह समझता था कि देवता लोग विनाश को प्राप्त होंगे। सो आज मैं तब की बातें स्मरण कर अपनी सूझ-भूझ पर सन्तोष अनुभव करता हूँ। आज उन देवताओं का नाम लेने वाला भी कोई नहीं रहा। पूर्ण जाति-की-जाति का कहीं चिह्न तक नहीं है।’’
‘‘जानते हैं कि मैंने यह धारणा, कि देवताओं का विनाश समीप है, किस कारण से बनाई थी? पूर्ण जाति में इनिशियेटिव अर्थात् प्रेरणात्मक प्रवृत्ति का लोप हो गया था तथा सन्तति-निरोध का प्रयोग करने से जीने की इच्छा ही मिट गई थी। जीवन में सब आवश्यकताएँ उपलब्ध हो जाने से कोई उद्देश्य ही नहीं रहा था। जीवनोन्नति की इच्छा ही नहीं थी और आत्मा के अस्तित्व को भूल जाने से आत्मोन्नति भी रुक गई थी।’’
‘‘जब वे देवलोक में गया था, वहाँ वेदाध्ययन भी नहीं होता था। यज्ञ की प्रथा नहीं रही थी। जीवन-स्वार्थमय होने से विषयों में लीन हो गया था।’’
‘‘मुझे इन्द्र-भवन में ठहरे अभी एक दिन भी व्यतीत नहीं हुआ था कि एक अति सुन्दर युवती एक विशेष प्रकार के पत्रक, कई प्रकार की तूलिकाएँ और रंग लिये हुए मेरे आगार में आई। मैंने प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तो वह पूछने लगी, ‘आपका नाम संजय है क्या?’’
‘‘हाँ देवि! क्या कार्य है आपको मुझसे?’’
‘‘श्रीमान् ने मुझको आपके पास भेजा है। ये वस्तुएँ चित्रकारी के लिए हैं। उनका आदेश है कि आप अपनी तूलिका से सर्वप्रथम मुझे चित्रित करें।’’
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