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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘यह अस्वाभाविक है। एक ही माँ के पेट से पैदा होने से परस्पर मेल में क्या बाधा हो सकती है? रुचि-अरुचि का प्रश्न तो परिवार के बीच और बाहर सभी स्थानों पर हो सकता है।’’

‘‘तो यदि नीलिमा आपके पिता और माता की लड़की होती तो भी यह आपकी पत्नी होती।’’

‘‘मुझको अपने माता-पिता का स्मरण नहीं। न ही नीलिमा को है। इसी प्रकार यहाँ के अन्त निवासियों की बात है। जब मैं पाँच वर्ष से भी कम आयु का था तो मुझको अपने माता-पिता से पृथक् एक भवन में रख दिया गया था। वहाँ-सभी लगभग मेरी आयु के लड़के रहते थे। मैं पैंतीस वर्ष की आयु तक वहाँ रहा। वहाँ मुझको पढ़ना-लिखना सिखाया गया। शस्त्र चलाने का ढंग सिखाया गया और देवलोक के धर्म का अध्ययन कराया गया। पैंतीस वर्ष का होने पर मुझको विवाह की स्वीकृति दी गई। तब तक न तो मुझे यह पता रहा कि मैं किसकी सन्तान हूँ और न मेरे माता-पिता को कि उनकी कितनी सन्तान हैं।’’

‘‘मैंने अपने लिए पत्नी ढूँढ़ी। यदि यह कहूँ कि उस पत्नी ने मुझमें एक पति ढूँढ़ा तो अधिक सत्य होगा। कारण यह कि मेरी पत्नी पहले किसी अन्य की पत्नी रह चुकी थी। मुझसे आयु में बीस वर्ष बड़ी थी। वह स्त्री मेरे साथ बीस वर्ष तक रही। जब तक एक-दूसरे से ऊब गये तो हमने पृथक् हो जाना उचित समझा। तत्पश्चात् मैंने नीलिमा को ढूँढ़ लिया और अब पचहत्तर वर्ष से मैं इसका पति हूँ। इसने मुझे दो सन्तान दी थीं। दोनों लड़कियाँ ही थीं। मैं तो दो लड़कियों को उनके निवास-स्थान पर भेजकर उनको भूल जाता, परन्तु नीलिमा ने उनकी टोह रखी और अब मैं जानता हूँ कि मेरी एक लड़की दो सौ वर्ष की आयु के एक पुरुष की पत्नी है और दूसरी राजप्रासाद ने नृत्य-संगीत का कार्य करती है। वे प्रायः अप्सरा का जीवन व्यतीत कर रही हैं।’’

‘‘इस समय सूर्यास्त होने वाला था। मैंने अपने नव-परिचितों से कहा, ‘यदि आप लोगों को आपत्ति न हो तो कल मध्याह्नोत्तर हम पुनः मिल सकेंगे। अब मुझको भेंट की तैयारी करने के लिए अपने आगार में चला जाना चाहिए।’’

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