उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इस पर मैं एक क्षण तक विचार करता रहा। तदुपरान्त मैंने कहा, ‘मैं अपने लिए तो प्राकृतिक स्थलों के चित्र ही बनाना पसन्द करूँगा। परन्तु सुरराज की आज्ञानुसार आपका चित्र भी बनाऊँगा। रही यहाँ से उन चित्रों को ले जाने की बात, यह उनसे भेंट के समय निश्चित करूँगा।’’
‘‘तो ठीक है। मेरा चित्र बनाइये।’’
‘‘मैंने अपने आगार की खिड़कियों को खोल तथा बन्द कर प्रकाश की मात्रा, प्रकाश आने की दिशा और सुन्दरी के मुख पर प्रकाश से चमक इत्यादि का सन्तुलन ठीक कर कार्य आरम्भ कर दिया। तत्पश्चात् जब मैंने देखा कि यह ठीक स्थान पर बैठ गई है और उचित प्रकार से प्रकाशित हो गई है तो मैं पत्रक और तूलिका लेकर उससे कुछ अन्तर पर बैठ गया।’’
‘‘मुझको काम आरम्भ करने के लिए तैयार देख वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। मैंने उसके हँसने का अर्थ न समझ प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा तो वह पूछने लगी, ‘किसका चित्र बनाने लगे हैं?’’
‘‘अपने समक्ष बैठी हुई सुन्दरी का।’’
‘‘परन्तु वह सुन्दरी तो परिधान धारण किये हुए है न?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तो आप सुन्दरी के परिधान को चित्रित करेंगे? महाराज तो सुन्दरी का चित्र चाहते हैं।’’
‘‘सुन्दरी का मुख तो दिखाई दे रहा है।’’
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