उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘ ‘यह ठीक है। मिस्टर सानियाल परसों यहाँ आए थे। मैंने उनको उनके बचपन के एक स्वप्न का अर्थ बताया था। ऐसा प्रतीत होता है। कि उससे अति प्रभावित हुए हैं।
‘‘ ‘इस पर भी आपकी खोज तो बहुत पहले से ही हो रही है। मैं पुँगी के बिहार में एक भिक्षु के रूप में रहता हूँ। पिछले वर्ष हमारे गुरुजी ने मुझको बुलाकर कहा–इस पृथ्वी पर एक महान् आत्मा कलकत्ता में भटक रही है। तुम जाओ और इसको यहाँ ले आओ।
‘‘ ‘मैंने गुरु महाराज से पूछा कि मैं उस आत्मा को किस प्रकार पहचान सकूँगा। इस पर उन्होंने आपके मस्तक पर विद्यमान लक्षण बताये। अतः मैं आपकी खोज में चल पड़ा। कलकत्ता में आये मुझे एक मास से अधिक हो गया है और मैं समझ नहीं पा रहा था कि किस प्रकार आपकी खोज की जाय।
‘‘ ‘आज आपको स्वयं यहाँ उपस्थित होते देख मैं अपनी खोज की सफलता पर फूला नहीं समाता। सो अब चलने के लिए तैयार हो जाइये।’
‘‘इस एकाएक नियंत्रण से मैं चकित रह गया। इस पर भी बात टालने के लिए मैंने पूछा, ‘वहाँ चलने से क्या होगा?’
‘‘ ‘हमारे गुरु जी दो बातों के ज्ञाता हैं। एक तो वे भूतकाल के अन्धकार में ऐसे देख लेते हैं, जैसे अँधेरे में बिल्ली सब-कुछ देख सकती है। दूसरे वे भविष्य के बादलों को छिन्न-भिन्न कर उसके पार की बात जान सकते हैं।’
‘‘ ‘इन दोनों बातों को जानने से क्या होगा?’
‘‘ ‘यह तो मैं नहीं जानता। आप गुरुजी के पास चलकर पूछ लीजिये।’
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