उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘ऐसा सुना जाता है कि सभा से लौटते विद्यार्थियों ने नरेन्द्र से पूछा कि उसने गजल क्यों नहीं गाई और भजन क्यो गाया? नरेन्द्र ने उत्तर दिया कि वह स्वयं नहीं जानता। उसको तो भजन कंठस्थ भी नहीं था। उसने आज तक कभी कोई भजन गाया भी नहीं। जब स्वामीजी के आदेश पर वह गाने लगा तो अनायास ही उसके मुख से इस भजन के स्वर निकल गए। उसको प्रतीत हो रहा था कि इस भजन के स्वर और बोल स्वयं ही उसके मन में प्रस्फुटित हो रहे हैं। मानो उसको कोई भीतर से ही प्रेरित कर रहा हो। जैसे नाटक में ऐक्टरों को ‘प्रौम्प्टर’ उनका पार्ट स्मरण कराता रहता है, ठीक वही स्थिति उसकी भी थी।
‘‘विद्यार्थीगण नरेन्द्र की हँसी उड़ाने लगे। इस घटना ने नरेन्द्र के मन में आश्चर्यकारक परिवर्तन उत्पन्न किया और इस कथा ने मेरे मन में भी एक अनिर्वचनीय उत्सुकता उत्पन्न कर दी। यह उत्सुकता पहले तो सर्वथा धँधुली-सी थी, परन्तु शनैः-शन एक वह निश्चित रूप धारण करती गई।
‘‘जब मैं ‘लॉ, की पढ़ाई समाप्त कर मिस्टर सेन के साथ वकालत का अभ्यस कर रहा था, उस काल में मेरा तिब्बत एक लामा से परिचय हो गया। पहले ही दिन जब मैं उससे मिलने गया तो वह उठकर मेरा स्वागत करने लगा और मुझको आदर से अपने आसन पर बैठाने का आग्रह करने लगा। मैं इससे भारी संकोच में पड़ गया। बहुत आग्रह करने पर वह मुझको अपने आसन पर बैठने के लिए राजी कर सका। तत्पश्चात् उसने कहा, ‘‘मैं आपकी एक मास से प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’
‘‘ ‘एक मास से, परन्तु मुझको तो आपके विषय में कल ही मेरे एक मित्र मनमोहन सानियाल ने बताया था कि आप बहुत विद्वान् और स्वप्नों का अर्थ बताने वाले व्यक्ति हैं।’
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