उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
4 पाठकों को प्रिय 137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
2
उसने बताना प्रारम्भ किया, ‘‘मैं जब कलकत्ता में विद्यार्थी ही था तब मैंने स्वामी राधाकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के प्रथम परिचय की कथा सुनी थी। स्वामी रामकृष्णजी दक्षिणेश्वर में पीपल के पेड़ के नीचे बैठे कीर्तन कर रहे थे। भक्तगण उनके कीर्तन में साथ दे रहे थे।
‘‘ऐसा कहा जाता है कि उस समय विवेकानन्द, जिसका नाम नरेन्द्र था, अभी विद्यार्थी ही था। वह कुछ विद्यार्थियों के साथ स्वामीजी की हँसी उड़ाने के लिए उस कीर्तन में पहुँच गया। नरेन्द्र उस समय गजलें गाया करते थे। विद्यार्थियों का विचार था कि वे उस दिन नरेन्द्र से कीर्तन करने के लिए कहेंगे और वह गजलें गायेगा। इस पर सब विद्यार्थीगण मिलकर स्वामीजी की हँसी उड़ायेंगे।
‘‘इसके विपरीत बात यह हुई कि जब यह मण्डली कीर्तन-स्थल पर पहुँची तो स्वामी रामकृष्णजी ने कीर्तन बन्द कर नरेन्द्र की ओर उँगली करके कहा, ‘आओ! आओ नरेन्द्र! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’
‘‘सब लोग, विशेष रूप से विद्यार्थीगण, विस्मय में स्वामीजी की ओर देखते रह गये। उनके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा, जब नरेन्द्र उनके बीच में से निकल कर स्वामीजी के पास चला गया और स्वामीजी के संकेत करने पर उनके समीप जा बैठा। सब भक्तजनों को ऐसा प्रतीत हुआ कि दोनों पूर्व परिचित हैं।
‘‘कीर्तन में स्वामी रामकृष्णजी ने नरेन्द्र को भजन सुनाने के लिए कहा, ‘बेटा करो न भजन?’’ नरेन्द्र गाने लगा–‘हरि बिन मीत न कोऊ।’ पन्द्रह-बीस मिनट तक उसने यह भजन गाया और उसके गाने में विशेष रस प्रकट हुआ। जब सभा समाप्त हुई तो स्वामी रामकृष्ण ने कहा, ‘नरेन्द्र! फिर आना।’
|