उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
4 पाठकों को प्रिय 137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘ ‘इतनी-सी बात जानने के लिए मुझे पुँगी जाना होगा? कहाँ है वह स्थान?’
‘‘ ‘ यहाँ से हम कलिम्पोंग जायेंगे। वहाँ से आगे का मार्ग पैदल का है। दो मास की यात्रा से हम ल्हासा पहुँच जायेंगे। वहाँ से एक सप्ताह पूर्वोत्तर की यात्रा पर पुंगी विहार है। ऐसा कहा जाता है कि गुरु विश्वेश्वरजी वहाँ पर तीन सौ वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इसी के द्वारा मनुष्य योनी में श्रेष्ठ व्यक्तियों की उपस्थिति जान लेते हैं।’
‘‘मैंने बाहरी दृढ़ता दिखाते हुए कहा, ‘महाराज! यहाँ इतना अधिका काम है कि मुझ को इतनी लम्बी यात्रा के लिए अवकाश ही नहीं है।’
‘‘देखिये माणिकलालजी!’ उस भिक्षु ने कहा, ‘मैंने सन्देश दे दिया है। शेष आपके विचार करने की बात है।’
‘‘मैं वहाँ से लौटा तो मुझको बार-बार स्वामी रामकृष्णजी तथा स्वामी विवेकानन्दजी की प्रथम भेंट की घटना स्मरण आ रही थी। वे पूर्व-जन्म के परिचित थे। अतः दोनों ने एक-दूसरे को परस्पर पहचान लिया था। तो क्या इस भिक्षु के गुरु भी मेरे पूर्व-परिचित हैं?
‘‘उसी सायंकाल मैं सानियाल से मिलने गया। मैंने उससे जाते ही कहा, ‘क्या उस तिब्बती बौद्ध भिक्षु ने मुझको बुलाने के लिए आपसे कहा था?’’
‘क्या मतलब?’ सानियाल ने प्रश्न-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखकर पूछा।
‘‘मैंने अपने कहने का अभिप्राय बताते हुए कहा, मैं आज उनसे मिलने गया था। उन्होंने मुझको बताया कि वे मेरी एक मास से प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसी कारण मैं पूछ रहा हूँ कि क्या उन्होंने आपको मेरे वहाँ जाने के विषय में कुछ कहा था?’’
|