उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘ना भाई माणिक! ऐसी कोई बात नहीं हुई। मैं परसों पहली बार ही उनसे मिलने गया था। उन्होंने मेरे एक स्वप्न का अर्थ ऐसे ढंग से बताया कि उससे जहाँ मैं चकित हुआ, वहाँ उनके ज्ञान से प्रभावित भी। तुम भी अपने बाल्यकाल के अनेकानेक स्वप्नों की बात बताया करते हो; इस कारण मैंने तुम्हें उनकी बात बता दी। अन्यथा न तो मैं उसको अधिक जानता हूँ, न ही वह मुझको विशेष परिचय रखता है।
‘‘हाँ, मेरे मित्र मिस्टर दास ने उसकी बहुत प्रशंसा की थी। उसने बताया था कि यह एक महायोगी है।’
‘‘मैं उस रात उस विचित्र निमंत्रण का अर्थ समझने का प्रयत्न करता रहा। मेरी कलकत्ता में किसी से भी लगन नहीं थी। मेरे पिता का देहान्त हो चुका था। मेरी माँ, अभी मैं कॉलेज में ही पढ़ता था कि मेरे छोटे भाई-बहन को लेकर अहमदाबाद अपने पिता के घर में चली गई थी। मैं कॉलेज में पढ़ता रहा। तत्पश्चात् मिस्टर सेन के साथ कलकत्ता में ही काम सीखता रहा। बीच-बीच में मैं अहमदाबाद जाकर माँ से मिल आया करता था। यह भी किसी लगन के कारण नहीं था। केवल माँ को मिलना अपना कर्तव्य जानकर वहाँ जाया करता था। अपने भाई-बहन से तो मेरी किसी प्रकार की भी समन्वयता नहीं थी। वहन का तब विवाह हो चुका था और भाई अहमदाबाद में एक फर्म में काम करता था।
‘‘मैं रात-भर विचार करता रहा कि मुझको तिब्बत जाना चाहिए अथवा नहीं। दिन निकलने तक मैं निर्णय नहीं कर सका। उस दिन मैंने मिस्टर सेन से पूछा, ‘तिब्बत जाने के लिए पासपोर्ट का प्रबन्ध किस प्रकार हो सकता है?’
‘‘मिस्टर सेन अचम्भे में मेरा मुख देखने लग गये। मैंने उनको बताया, ‘मैं तनिक संसार में घूमना चाहता हूँ। सबसे पहले तिब्बत ही जाने का विचार है।’
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