उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘और यह वकालत?’’
‘‘इस अभ्यास को वहाँ से लौटकर जारी रखूँगा।’
‘‘जैसी इच्छा हो करो। परन्तु एक तो भारत सरकार का पास-पोर्ट और दूसरे तिब्बत सरकार का ‘विसा’ चाहिए। पहला तो सुगमता से मिल जायेगा, परन्तु दूसरे के विषय में मैं नहीं जानता कि कैसे होगा?’’
‘‘मैंने उसी दिन पासपोर्ट लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया। यद्यपि जाने के विषय में मैंने निर्णय नहीं किया था तदपि पासपोर्ट के लिए प्रार्थना करने में मुझको कुछ भी हानि प्रतीत नहीं हुई।
‘‘प्रार्थना करने के पश्चात भी मैं विचार करता रहा कि मुझे तिब्बत जाना चाहिए अथवा नहीं। इन्हीं दिनों मुझे माँ का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि उसने मेरे लिए एक लड़की ढूँढ़ी है और लड़की के माँ-बाप शीघ्र ही विवाह करने की माँग कर रहे हैं।
‘‘मैं इस झंझट में फँसना नहीं चाहता था। इससे बचने के लिए तिब्बत की यात्रा एक बहुत अच्छा बहाना मिल गया। मैंने वहाँ जाने के विषय में और भी अधिक वेग से विचार करना आरम्भ कर दिया।
‘‘पासपोर्ट के विषय में पुलिस मेरे विषय में जाँच करने के लिए मिस्टर सेन के पास आई। मिस्टर सेन ने सन्तोषजनक उत्तर दे दिया। इस जाँच के विषय में जानकर मैं तिब्बत के ‘विसा’ के सम्बन्ध में तिब्बती लामा से पूछने चला गया। वह मुझको आया देख बोला, ‘माणिकलाल! आ गये! चलो, कल प्रस्थान करें।’
‘‘किन्तु श्रीमान् जी! अभी पासपोर्ट तो मिला ही नहीं।’
‘‘उसकी क्या आवश्यकता है? मेरे-जैसे भिक्षुओं के वस्त्र पहन लो और चलो। मैं चुँगी के अतिरिक्त मार्ग से तुम्हें ले चलूँगा।’’
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