उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘परन्तु मुझको लौटना भी तो है।’’
‘‘इस बात से वह भिक्षु विस्मय में मेरा मुख देखने लग गया। बहुत देर तक विचारकर वह बोला, ‘कदाचित् तुम्हें लौटना नहीं चाहिए। यदि लौटने की इच्छा हुई भी तो मैं तुम्हें यहाँ छोड़ जाऊँगा। देखो, हम लोग इन राज्यों की सीमाओं के बन्धनों से परे हैं। हमारे लिए एक-दूसरे राज्य में कोई अन्तर नहीं है। चाहे वह तिब्बत हो चाहे भारत।’’
‘‘मैं तो अवाक् उसका मुख देखता रह गया। मुझको चुप देख उसने कहा, ‘विश्वास नहीं आया न, स्वयं ही चलकर देख लो।’
‘‘कितना रुपया साथ ले चलना चाहिए?’’
‘‘एक पाई भी नहीं। इन चाँदी के टुकड़ों को उठाने का कष्ट नहीं करना।’
‘‘और कपड़ों के विषय में क्या होगा? सुना है वहाँ तो बहुत ही शीत पड़ता है?’’
‘‘यह सब बोझा उठाकर चलना कठिन हो जाएगा।’
‘‘किन्तु भगवन्! मैं आपकी भाँति तपस्वी तो नहीं हूँ। मैं तो गरम कपड़ों के अभाव की संगत में ऐसा नहीं होगा, निश्चिन्त रहो।’
‘‘मुझे उसके कहने पर सन्देह बना ही रहा। इस कारण मैं जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। इस पर भी अपनी यात्रा के प्रबन्ध के लिए दो सहस्त्र रुपया स्वर्ण के रूप में साथ ले जाने का मेरा निश्चय था। मैं कम-से-कम दो कम्बल और पहनने के पाँच जोड़े कपड़े साथ ले जाना चाहता था। मैंने यह विचार किया कि कैलिम्पौंग में जाकर ‘याक’ कर लूँगा और उस पर अपना सामान लादकर चलूँगा। किन्तु यह सब-कुछ तो बिना ‘पासपोर्ट’ और ‘विसा’ के नहीं हो सकता था। वह भिक्षु तो मुझे अगले ही दिन चलने के लिए कह रहा था। इस एक दिन में किसी एक चीज़ का भी मिलना सम्भव नहीं था।
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