उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘राज्य हमारे भोजन, वस्त्र और निवास का प्रबन्ध करता है। जब हमारे यहाँ कोई बालक सज्ञान होता है तो उसको पृथक् मकान मिल जाता है। उसके भोजनादि का प्रबन्ध तो जन्म से होने लगता है।’’
‘‘तो आपको कोई भी वस्तु खरीदनी नहीं पड़ती?’’
‘‘यह राज्य का कार्य है कि हमारी हर आवश्यकताओं की पूर्ति करे।’’
‘‘तो आप लोग कुछ नहीं करते?’’
‘‘हमारे करने के लिए केवल एक ही कार्य है। वह है, स्त्री-पुरुषों का परस्पर प्रेम करना।’’
‘‘तो क्या पुरुषों को स्त्रियाँ और स्त्रियों को पुरुष भी राज्य की ओर से नहीं दिये जाते?’’
‘‘नहीं इनका चयन हमें स्वयं करना पड़ता है। राज्य यह करता है कि पुरुषों से स्त्रियों की संख्या अधिक बनी रहे, जिससे इनमें घाटा न पड़े।’
‘‘मैं देवलोक की खान-पान व्यवस्था से चकित रह गया। परन्तु यह प्रश्न तो अभी भी बना ही रहा कि राज्य इन वस्तुओं को किनसे बनवाता है और उनको इस लोक-सेवा के उपलक्ष्य में क्या पुरस्कार देता है।’’
‘‘मैंने इस विषय में अपने समीप खड़े हुए देवता से पूछा, ‘राज्य के पास भवन, वस्त्र और भोजनादि कहाँ से आते हैं?’’
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