उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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‘‘मुझे राज्यप्रासाद के एक आगार में रहने के लिए स्थान दिया गया। उसी स्थान पर मेरे भोजन-वस्त्रादि सभी सुख-साधनों की व्यवस्था थी। मुझे राजप्रासाद में बे-रोक-टोक आने-जाने का संकेत भी मिल गया। सबसे प्रथम बात जो मेरे मन में आई, वह वहाँ के लोगों के निर्वाह के विषय में जानने की थी। अतः मैं अपने आगार में ठहरने और दिन का भोजन करने के पश्चात् राजप्रासाद से निकल गया और नगर में घूम-घूमकर वहाँ के रहने तथा जीवन-यापन की विधि पर जानकारी प्राप्त करने लगा।
‘‘अमरावती बहुत ही सुन्दर नगरी थी। चौड़े मार्ग, उच्च अट्टालिकाएँ, स्थान-स्थान पर पुष्प-वाटिकाएँ, जल प्रताप और फव्वारे अंगणित संख्या में समस्त नगर में बने हुए थे। जान-साधारण के भ्रमण के लिए विशाल उद्यान और उनमें कीड़ा के साधन बने हुए थे। मैं कई प्रहर तथा नगर में घूमता रहता और मुझको एक व्यक्ति ऐसा काम करने वाला नहीं मिला, जिसका कार्य किसी प्रकार से समाज की सेवा करना कहा जा सके। भोजन, वस्त्र अथवा गृह-निर्माण का कार्य होता मुझे दिखाई नहीं दिया।
‘‘मैं एक पुष्प-वाटिका में रंग-रंग के पुष्प देख रहा था। पूर्ण वाटिका पुष्पों की भीनी सुगन्ध से सुरभित हो रही थी। एक क्यारी में बहुत ही विचित्र प्रकार के फूल लगे थे। मैं खड़ा-खड़ा उनका सौन्दर्य देख तृप्ति अनुभव कर रहा था कि अचानक एक युवक तथा एक युवती मेरे समीप आकर खड़े हो गये।’’
‘‘युवक ने पूछा, ‘कैसे लग रहे हैं ये पुष्प?’
‘‘बहुत सुन्दर हैं।’’ मैंने कहा।
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