उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘सर्पिना’ उन्माद की औषध है। इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित महीपतिजी ने इस यात्री को उन्माद रोग से ग्रस्त समझा होगा। उसके परिचय की बात को छोड़ मुझको उसके पागल होने का कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दिया था। ‘क्या जाने’ मैं विचार करता था, ‘इसको उनका परिचय हो। पण्डित महीपतिजी इतने व्यस्त व्यक्ति हैं कि वे स्वयं भूल गये हो।’ इतनी-सी बात के लिए किसी को पागल की संज्ञा दे देना ठीक नहीं प्रतीत हुआ। परन्तु मैं स्वयं भी अभी तक स्मरण नहीं कर सका था कि मैं इस व्यक्ति से कब मिला हूँ और कहाँ उसके सम्पर्क में आया था? इस कारण सतर्क रह मैंने सूप पीना जारी रखा।
बैरा प्लेट उठाने आया तो साथी यात्री ने प्लेट को उठाया और एक ही घूँट में सूप पीकर प्लेट खाली कर दी।
बैरा के चले जाने पर उसने प्रश्न भरी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या आपको भी मैं पागल दिखाई देता हूँ?’’
सूप पीने से कुछ चुस्त होकर मैंने कहा, ‘‘देखिए जी! जितने महापुरुष हुए हैं, वे सब अपने काल के जन-साधारण से पागल ही माने जाते रहे हैं। प्रायः महापुरुष तो अपने मरने के पश्चात् ही ख्याति लाभ करते हैं।’’
इस पर वह व्यक्ति खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसका हँसना तो उसके मुस्कराने से अधिक प्रतीत हुआ। वह पागलों की हँसी नहीं थी। उसमें व्यंग्यात्मक ध्वनि थी। मैं आश्चर्य से उसका मुख देखने लगा। उसने केवल ये कहा, ‘‘मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं पागल नहीं हूँ।’’
अब मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘परन्तु श्रीमान् जी! इस आश्वासन की तो पण्डित महीपतिजी को आवश्यकता थी। आपको चाहिए था कि उन्हें विश्वास दिलाते।’’
‘‘मैंने यह आवश्यक नहीं समझा। कारण यह कि न वे आप हैं और न ही आप वे हैं। जिस काम की आवश्यकता और जिसके सफल होने की आशा आपसे की जा सकती है, वह उनसे नहीं है।’’
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