उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
किंचित्मात्र परिचय को घनिष्ठता के रूप में प्रकट करना, किसी दूरस्थ सम्बन्धी का नाम लेकर निकटस्थ होने का दावा करना अथवा परस्पर सुख-दुःख में साथी होने की बात बताना, परिचय को मैत्री की सीमा तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।
यात्रा में ठगा जाना, मैं किसी प्रकार महिमा की बात नहीं मानता। इस कारण मैंने उसकी बातों का उत्तर देने की अपेक्षा सूप पीना उचित समझा। मुझको चुप देख उसने भी सूप की प्लेट में से चम्मच भरकर पीते हुए पूछा, ‘‘आप बम्बई किस काम से आये थे?’’
‘‘अखिल भारतीय वैद्य महासभा के प्रधान बम्बई में रहते है। उनसे कुछ काम था। मैं उस सभा का प्रधानमैंत्री हूँ।’’
‘‘ओह! वैद्यराज श्रीमहीपतिजी?’’
‘‘जी! तो आप भारत के बहुत-से वैद्यों से परिचत हैं? क्या आप भी वैद्य हैं?’’
‘‘जी नहीं! मैं वकील हूँ। पण्डित महीपति से पूर्व-परिचय था। परन्तु जब मैंने उनको उनसे परिचय का स्थान और काल बताया तो वे खिलखिलाकर हँस पड़े और मुझको ये गोलियाँ दे कर बोले–तीन से छह तक इनका नित्य प्रयोग करूँ और गाय के दूध का अधिक मात्रा में सेवन करूँ। देखिए, ये गोलियाँ है।’’
इतना कहकर उसने एक शीशी, जिस पर ‘सर्पिना’ लिखा हुआ था, अपने कुर्ते की जेब में से निकालकर दिखा दी। मैंने शीशी पर लेबल पढ़ा तो मुस्कराकर सामने बैठे यात्री के मुख की ओर देखने लगा। वह सूप पीता रहा। दो-तीन चम्मच सूप पीकर उसने समीप रखी स्लाईस में से एक ग्रास मुख में लेकर चबाते हुए मेरे मुख की ओर देख पुनः मुस्कराना आरम्भ कर दिया।
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