उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वह इस कारण कि मेरे गुरू ने मुझे एक ऐसा झाड़न प्रदान किया है, जिससे मैं मन के दर्पण पर पड़ी गर्द भली-भाँति झाड़ सकता हूँ। झाड़ देने के पश्चात् मन पुनः निर्मल निकल आता है और उसमें प्रत्येक वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देते लगता है।’’
‘‘तो आपने अपने मस्तिष्क से मिट्टी झाड़कर उसे निर्मल कर लिया है?’’
इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया और वह मुस्कुराने लगा। इस समय बैरा आर्डर लेने आया तो मैंने उसको ‘सामिष भोजन’ लाने के लिए कह दिया। साथी ने उसको वैसा ही आर्डर दिया। तत्पश्चात् अर्द्ध-निमीलित नेत्रों से, किसी अतीत की स्मृति में विलीन होते हुए, उसने कहना आरम्भ किया, ‘‘एक समय मुझको एक ऐसा कार्य करना पड़ा था कि मैं उस काल के अनेकानेक महापुरुषों के सम्पर्क में आया। कुछ लोगों से मिलने, उनसे बातचीत करने और उनकी संगत में रहने का इतना अवसर मिला था कि उनकी स्मृति मेरे मन पर अति गहरी छाप छोड़ गई है। उनमें से एक आप भी हैं।’’
बैरा सूप लाकर सामने रख गया। मैं उस पर नमक आदि डाल कर पीने के लिए तैयार हो रहा था। मेरे साथी ने भी नमकदानी उठाई और मेरे मुख पर ध्यान से देखते हुए कहा, ‘‘प्राचीन परिचितों से पुनर्मिलन कितना मधुर होता!’’
मेरे मन में एक भय-सा समाने लगा था। सभी जानते हैं कि रेल आदि यात्राओं में ठग बहुत घूमा करते हैं और उनकी बातें भी इसी प्रकार की होती हैं। पुराना परिचय और उसका मधुर स्मरण, वर्तमान में प्रायः घनिष्ठता उत्पन्न करने का प्रथम चरण होता है।
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