उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘आप गुजरात के रहने वाले मालूम होते हैं?’’
‘‘हाँ, परन्तु मैं आपको जानता हूँ। आजकल तो आप दिल्ली में रहते हैं न?’’
‘‘जी हाँ?’’
‘‘चिकित्सा-कार्य करते हैं?’’
‘जी।’’
परन्तु मेरा आपसे परिचय बहुत पुराना है। आप भूल गये हैं। कदाचित् इतने काल की बात स्मरण भी नहीं रह सकती।’’
मुझे हँसी आ गई। अब तक गाड़ी चल पड़ी थी। मुझे हँसता हुआ देख, सामने बैठे यात्री ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘‘इसमें हँसने की क्या बात है?’’
उसकी मुस्कुराहट में सत्य ही, एक विशेष आकर्षण और माधुर्य था। मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके मुख की ओर देखता रहा। इस पर उसने आगे कहा, ‘‘यह जीव का धर्म है कि काल व्यतीत होने के साथ ही वह अपनी पिछली बातें भूल जाता है। देखिये वैद्यजी! इस संसार में इतनी धूल उड़ रही है कि कुछ ही काल में मन मुकुर पर एक अति मोटी मिट्टी की तरह बैठ जाती है, जिससे उस दर्पण में मुख भी नहीं देखा जा सकता।’’
मैंने अपने हँसने का कारण बताते हुए कहा, ‘‘आपके इस अलंकार को भली-भाँति समझता हूँ और यह बात सत्य है कि मुझे अभी तक भी स्मरण नहीं आया कि मैंने आपको इससे पूर्व कहाँ देखा है? मैं हँस इस कारण रहा था कि यदि भूल जाना जीव का धर्म है तो आपको मैं कैसे स्मरण रह गया हूँ?’’
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