उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘आप उससे विवाह कर उसके जीवन को नष्ट नहीं कर रहे क्या?’’
‘‘जीवन नष्ट क्यों? मैं तो उसकी मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहने की आशा रखता हूँ। यदि कोई घटना न घटी तो मैं दो सौ पचास वर्ष तक आयु भोगूँगा।’’
‘‘तब तो कदाचित् आप को अभी और विवाह करने की आवश्यकता पड़ेगी?’’
वह मुस्कराता हुआ कहने लगा, ‘‘आवश्यकता तो कदाचित् सरोजिनी को है। उसका मेरे साथ पहले एक जन्म में विवाह हो चुका है। यह यूनान में हुआ था। तब यह ऐचिल्स, एथन्ज़ के एक कौंसिलर की लड़की थी और मैं ओलम्पिक पहाड़ी के मन्दिर पर एक पुजारी का लड़का था। उसका नाम नोरा था और मैं उस समय एनसिरीज नाम से विख्यात था। वह मुझ पर आसक्त हो गई, तो हम दोनों वहाँ से भागकर यरुशलम में आ गये। वहाँ वह नजरथ के यीशुमसीह की चेली बन गई थी। यीशु को रोमनों ने फाँसी दे दी तो मैं उसको लेकर दमिश्क चला आया। वहाँ मैं सात सन्तानों का बाप होकर उस देस से छूटा था।
‘‘नोरा से, मेरा अभिप्राय है सरोजिनी, जो पिछले मास अपने पिता के साथ बम्बई आई थी। मेरी उससे ‘ऐलीफैन्टा केव्ज़’ पर भेट हुई थी। वह अपने पिता के साथ ‘केव्ज़’ देखने आई थी और मैं अपने एक मित्र के परिवार के साथ वहाँ पिकनिक के लिए गया हुआ था।
‘‘हमारे पास पीने का जल और भोजन का सामान था। उन लोगों के पास इस प्रकार का कोई सामान नहीं था। सरोजिनी मेरे मित्र की पत्नी से पानी माँगने आई तो हमारी आँखें मिल गईं। मैं पहचान गया और अनायास ही मेरे मुख से निकल गया ‘नोरा’। वह मेरे मुख की ओर देखती रह गई।
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