उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैंने उसके पिता को अपनी पार्टी में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दे दिया। उसने पहले तो स्वीकार नहीं किया किन्तु बाद में मेरे मित्र की पत्नी के कहने पर वे लोग मान गये।’’
‘‘भोजनोपरान्त हम एक पेड़ की छाया में कपड़ा बिछाकर विश्राम करने लगे थे। स्टीमर के जाने में अभी दो घण्टे थे। हम बैठे ताश खेलने लगे। बच्चे थक कर सो गये थे। ताश खेलते हुए नोरा मेरे समीप बैठी हुई थी। मैंने उससे इधर-उधर की बात आरम्भ कर दी। बातों-ही-बातों में उसने मुझसे नोरा का अर्थ पूछ लिया। मैंने केवल इतना ही बताया, एक लड़की थी जिसको मैं जानता हूँ।’’
‘‘परन्तु यह तो मेरा नाम है।’’
‘‘सच! यह तो यूनानी भाषा का है और तुम तो गुजरातिन प्रतीत होती हो।’’
‘‘हाँ, परन्तु मेरे पिता ने मेरा यह उपनाम रखा हुआ है, वैसे तो मेरा नाम सरोजिनी ही है।’’
‘‘क्या जाने, तुम वही नोरा हो, जिसे मैं जानता था।’’
‘‘बहुत विचित्र है! आप भी मुझे देखे-भाले से प्रतीत होते हैं। कभी आप अमृतसर आये हैं क्या?’’
‘‘नहीं, मैं भारतवर्ष में अहमदाबाद, कलकत्ता और बम्बई के अतिरिक्त अनयत्र नहीं गया। इस पर भी एक नोरा को मैं जानता हूँ। उसका मुझसे विवाह...।’ मैं कहता-कहता रुक गया। उस दिन प्रातः काल पण्डित महीपतिजी से मुझे सर्पिना की गोलियाँ मिली थीं। मैं इस लड़की के सम्मुख पागल बनना नहीं चाहता था।’’
‘‘उसने मुझसे छूटते ही पूछा, ‘तो आपका विवाह नहीं हो सका न?’’
‘‘नहीं, मैं अभी तक अविवाहित हूँ।’’
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