उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘यह स्वाभाविक ही है। यह बात ही अनोखी है। मुझको तो योगिराज ने यह नहीं बताया था। कि मैं कौन हूँ। मुझको तो उन्होंने मेरे घरवालों का परिचय देकर कहा, ‘बालक! तुमको अपने में शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे तुम भूत, भविष्य का ज्ञान प्राप्त कर सको। तुम प्राचीन काल के महापुरुष हो और तुम्हारे द्वारा एक महान कार्य सम्पन्न होने वाला है।’’
‘‘मुझमें इतना साहस नहीं रहा था कि उनसे इस विषय में कुछ अधिक पूछूँ। मैं अपने अभ्यास में लग गया। दस वर्ष की घोर तपस्या और योगाभ्यास के पश्चात् ही मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा था कि जैसे मेरी आँखों के सामने से काल और अन्तर के बादल फटते जा रहे हैं। बीस वर्ष की तपस्या के पश्चात् मैं सदा प्रसन्न रहने लगा था और मुझको मूर्ण जगत् एक अत्यन्त अद्भुत नृत्य में लीन दिखाई देने लगा। मुझको दूसरों के हृदय के भीतर की बातें सुनाई देने लगीं। फिर तीस वर्ष पश्चात् मेरी समझ में कुछ इस प्रकार आने लगा कि इस संसार की प्रत्येक बात जो किसी अतीत काल में घटित हुई है, जो किसी भविष्य काल में होने वाली है अथवा जो वर्तमान में हो रही है, मेरे सम्मुख स्पष्ट हो रही है।
‘‘मैं तो अभी वहाँ से न लौटता, परन्तु मुझको आभास हुआ कि मेरी माँ मृत्यु शैय्या पर है और उसे मेरी स्मृति दुःखित कर रही है। मेरे मन में आया कि चलना चाहिए। मैंने गुरु महाराज से अवकाश माँगा, परन्तु उन्होंने मुझे बताया कि मैं अब जा रहा हूँ तो मेरे लौटने की आवश्यकता नहीं। मेरा काम इस देश में है। अतः मैं चला आया हूँ।’’
‘‘मैं माँ के देहान्त से पूर्व ही घर पहुँच गया। मेरे पिता भारी सम्पत्ति छोड़ गये थे। मेरे भाई और बहन मुझको लौटा हुआ देख मुझसे रुष्ट रहने लगे। मैं समझ गया कि उनको सन्देह हो गया है कि मैं अपने पिता की सम्पत्ति में अपना भाग लेने के लिए प्रकट हो गया हूँ। तदनन्तर मैं अहमदाबाद से बम्बई चला आया और अब पाँच वर्ष से वहीं प्रैक्टिस कर रहा हूँ।’’
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