उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
कभी मेरे मन में यह विचार आता था कि कदाचित् यह सब कुछ बनाई हुई बातें ही हों। न तो वह साठ वर्ष की आयु का है, न ही तीस वर्ष तक तिब्बत में रहकर तपस्या और सिद्धि प्राप्त किये हुए है। यह अधिक सम्भव प्रतीत होता था कि वह मुझको एक काल्पनिक जगत् में पहुँचाकर किसी प्रकार ठगने का विचार रखता हो।
इसी प्रकार के भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी विचारों में डूबा-हुआ मैं प्रातःकाल तक सो नहीं सका। जहाँ तक मुझे तक मुझे स्मरण है, मैं प्रातः चार बजे सो गया। जब मेरी नींद खुली तो गाड़ी एक छोटे से स्टेशन पर खड़ी थी, जहाँ उसको रुकना नहीं चाहिए था। तब तक सात बज चुके थे और दिन निकल आया था।
मुझको हिलता देखकर वह व्यक्ति, जो गाड़ी के डिब्बे के बाहर प्लेटफार्म पर खड़ा था, भीतर आ गया और मेरी ओर अपनी मधुर-भरी दृष्टि से देखने लगा। मैं उठकर बैठा तो उसने पूछा, ‘‘आपके लिए चाय मंगवाऊँ?’’
‘‘हाँ, केवल चाय ही।’’
उसने रैस्टोरेंट कार वाले को चाय लाने के लिए कह दिया। मैं उठकर बिस्तर पर बैठ गया था। वह मेरे समीप बैठकर बोला, ‘‘आप तो खूब सोये?’’
‘‘जी नहीं, मैं रात-भर जागता रहा हूँ। चार बजे के पश्चात् ही सो सका था। इसी कारण अभी भी कठिनाई से ही नींद खुली है।’’
‘‘रात नींद क्यों नहीं आई?’’
‘‘आपकी बताई हुई कहानी मन में अनेकानेक विचार उत्पन्न करती रही। मुझको अभी भी उस पर विश्वास नहीं आ रहा।’’
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