उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं बिस्तर पर लेट गया। जब माणिकलाल ऊपर की बर्थ पर चला गया तो मैंने अपना पर्स, जिसमें उस समय भी पाँच सौ रुपये से अधिक थे, अपने कोट की जेब से निकालकर सिरहाने के नीचे रख लिया। मैंने अपना सामान देखा और बैड-लैम्प बन्द कर सोने का यत्न करने लगा।
किन्तु मैं सो नहीं सका। इस बात पर, कि मैं युधिष्ठिर हूँ, मन में एक विशेष प्रकार की गुदगुदी अनुभव करने लगा था मैं माणिकलाल के योगिराज विश्वेश्वर की बात और उसकी अपनी बात सुनकर अनेकानेक विचारों में विचरण करता हुआ रात-भर करवटें बदलता रहा।
मैं विचार कर रहा था कि मैं युधिष्ठिर हूँ। वह तो अत्यन्त धर्मात्मा था। वह स्वर्गारोहण कर चुका था। वह पुनः इस मृत्युलोक में क्यों आया और फिर मुझमें ऐसी कौन सी बात है; जो किसी समय युधिष्ठिर में थी, जिससे यह व्यक्ति मुझे युधिष्ठिर कहता है।
मैं युधिष्ठिर हूं, यह विचार ही एक प्रकार की संवेदना उत्पन्न करने वाला था और यह जानकर कि महाभारत युद्ध के प्रमुख व्यक्तियों मे, मैं हूँ, जहाँ अत्यन्त आनन्द का अनुभव करने लगा था, वहाँ अपने पुनः इस मृत्यु लोक में आने पर शोक दुःख का अनुभव करता था।
फिर विचार आता था कि इस पागल की बातों पर विश्वास करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? मेरे मन में बार-बार आता था कि महीपति शर्मा की बात सत्य है। इस मनुष्य का मस्तिष्क बिगड़ चुका है। सम्भव है कि योग-क्रियाओं के करने से ही इसका मस्तिष्क बिगड़ा हो। इस विचार के आने पर मुझे उस व्यक्ति पर दया-सी आने लगी।
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