उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं उसके इस वक्तत्व पर अवाक् बैठा रह गया। उसने कपड़े बदलते हुए कहा, ‘‘विश्वास नहीं आया न?’’
‘‘मुझे-सदृश अल्प बुद्धि व्यक्ति के लिए इतनी दूर की बात पर विश्वास करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।’’
‘‘ठीक है। सुनिये आप युधिष्ठिर थे। परन्तु आपको तो विश्वास ही नहीं है न? अच्छा, अब सोना चाहिये।’’
स्वयं को युधिष्ठर कहा जाता सुन, मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा। मैं भी अपनी बर्थ पर से उठ पड़ा और पूछने लगा, ‘‘आप पण्डित महीपति वाली औषध प्रयोग करते हैं क्या?’’
अब बारी उसके हँसने की थी। उसने कहा, ‘‘मैंने आपको शीशी दिखाई तो थी। आपने देखा नहीं कि उसकी सील भी अभी नहीं तोड़ी गई। विशेष रूप से मैं उनकी दी हुई औषध खाऊँगा भी नहीं जानते हैं क्यों? वह इस लिए कि वे ‘कंस’ थे और आज भी उनको प्रकृति में वे परमाणु विद्यामन हैं, जो कंस के समय में उनमें थे।’’
‘‘तभी उन्होंने आपको पागल कहा होगा?’’
‘‘और आप क्या कहते हैं?’’
‘‘मैं इतनी शीघ्रता में रोग का निदान नहीं कर सकता। मैं समझता हूँ कि प्रातःकाल आपकी नाड़ी-परीक्षा के पश्चात् ही अपना मत व्यक्त कर सकूँगा।’’
‘‘ठीक है। प्रातः काल आपको नाड़ी दिखाऊँगा। इस पर भी इतना तो मैं जानता हूँ कि आपका निदान वह नहीं होगा, जो महीपति के रूप में कंस का हुआ है। उससे तो नाड़ी देखे बिना ही मुझे उन्माद का रोगी बता दिया।’’
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