उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘सुरराज, जो मेरे परम हितैषी है, की यही सम्मति है कि मैं यह कार्य स्वीकार कर लूँ।’’
इसके पश्चात सोमभद्र को यह साहस नहीं हुआ कि मुझको हस्तिनापुर जाने से रोकें। अब मेरे जाने की तैयारी होने लगी, परन्तु मोदमन्ती को मनाना इतना सुगम नहीं था। उसने एकदम कह दिया, ‘‘नहीं! नहीं!! नहीं!!! मैं आपको नहीं जाने दूँगी। हम देवेन्द्र के सेवक नहीं, जो उनकी आज्ञा मानें।’’
अब मेरे साथ सोमभद्र और माणविका भी उसको समझाने लगे। कई दिन की प्रेरणा और युक्ति के पश्चात् यह निश्चित हुआ कि मैं अभी हस्तिनापुर चला जाऊँ। मोदमन्ती अपने पिता के पास रहे। जब नीलाक्ष, हमारा पुत्र, पाँच वर्ष का हो जाये तो मोदमन्ती उसको अपने माता-पिता के पास रखकर हस्तिनापुर चली आये।
इस निश्चय के पश्चात् मैं चल पड़ा। मैंने एक पत्र लिखकर मोदमन्ती को दे दिया कि हस्तिनापुर से कुछ धन आये तो वह उसको मिल जाये।
हस्तिनापुर पहुँच मुझको विदित हुआ कि मेरे मार्ग-व्यय के लिए पाँच सौ स्वर्ण भेजा चुका है। मुझको इस अल्प धनराशि से निराशा हुई थी, अतः इस विषय में मैंने राजकुमार से बातचीत करने का निर्णय कर लिया।
हस्तिनापुर जाते हुए मार्ग में मैं अपने पिता से मिलने भी गया। उनको पूर्ण परिस्थिति में जब मैंने परिचित कराया तो उन्होंने कहा, ‘‘संजय! तुम्हारा इस प्रकार दो नौकाओं में पग रखना मैं पसन्द नहीं करता। एक के होकर रहो। या तो हस्तिनापुर राज्य से कुछ भी न माँगो और चुपचाप कार्य करते जाओ। तब ही तुम देवेन्द्र की नीति को चला सकोगे। अन्यथा देवेन्द्र से धन लेना बन्द कर दो और हस्तिनापुर से पारिश्रमिक लेना आरम्भ कर दो। इस अवस्था में जो कुछ हस्तिनापुर के हित की बात समझ में आती है, करो।
|