उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट्र को युवराज घोषित करवाना चाहिए और आप उसके शिक्षक बन जाइये।’
मैं सुरराज की इस योजना पर विचार कर इस परिणाम पर पहुँचा था कि चन्द्रवंश की जड़ों में विष देने का प्रयास किया जा रहा है। दूसरी ओर मैं यह देख रहा था कि हस्तिनापुर वालों को इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि तीन सौ कोस की यात्रा पर आने जाने के लिए तथा विदेश में रहने के लिए एक टका तक दिया जाये।
सुरराज ने पाँच सौ स्वर्ण प्रतिमास मुझको देने के लिए प्रबन्ध कर दिया था और अब मार्ग-व्यय के लिए दो सौ स्वर्ण और भेज दिये थे। अतः मेरे लिए यही उपाय रहा था कि मैं सुरराज का कहना मानता।
मैंने सुरराज को तो सूचना भेज दी कि मैं जा रहा हूँ, परन्तु अब समस्या मोदमन्ती से छुट्टी लेने की थी। जब मैंने उसको बताया कि मैं हस्तिनापुर जा रहा हूँ तो वह मेरे गले में बाँह डाल रात-भर पड़ी रोती रही। मैं हृदय से उससे प्रेम करता था और उसको छोड़कर जाना नहीं चाहता था, परन्तु मैं पराधीन था और इस पराधीनता का परिचय वहाँ किसी को देना नहीं चाहता था। सुरराज का यह आदेश था कि मुझे अपना देवलोक से सम्बन्ध किसी को नहीं बताना चाहिये।
अतएव प्रातःकाल जब मोदमन्दी गहरी निद्रा में पड़ी सो रही थी और मैं उसके बाहुपाश से अपने को छुड़ा सका तो अपने शयनागार से बाहर आकर मैंने सोमभ्रद को बताया, ‘‘मैंने हस्तिनापुर की सेवा स्वीकार कर ली है और मैं वहाँ जा रहा हूँ। मोदमन्ती को मेरे साथ भेजने की कृपा करें।’’
‘‘परन्तु तुमने यह सेवा स्वीकार क्यों की?’’
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