उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वे दुष्ट हैं, अधर्मी हैं अथवा मूर्ख हैं, यह उनकी सेवा स्वीकार करने के पूर्व विचार कर लो। जब एक बार सेवा स्वीकार कर ली तो उनका हित करने का ही यत्न करो।’’
‘‘मुझको पिताजी की यह बात मन लगी। इस विषय में भी मैं निर्णय कर लेना लेना चाहता था। हस्तिनापुर पहुँचने पर मेरा निवासगृह मुधे मिल गया था। यहाँ अपना सामान आदि रख तथा वस्त्र-परिवर्तन कर मैं राजकुमार देवव्रत की सेवा में जा उपस्थित हुआ। वे मुझको देख अति प्रसन्न हुए। मुझको आदर से बैठाकर अनौपचारिक वार्त्तालाप करते रहे।’’
वार्त्तालाप के अन्त में उन्होंने कहा, ‘‘यह तो आपको विदित ही हो गया होगा कि दोनों रानियों के लड़के हुए हैं। एक अन्धा है। दूसरे का रंग पाँडु है। राजमाता सत्यवती इस पर संतुष्ट नहीं थी। अतः उन्होंने अम्बिका को पुनः नियोग के लिए महर्षि के पास भेजा, परन्तु महारानी अम्बिका नहीं गईं। उन्होने अपनी दासी मर्यादा को महर्षि के पास भेज दिया। मर्यादा के भी एक पुत्र हुआ है।’’
इस समाचार से मेरे मुख पर मुस्कराहट दौड़ गई। राजकुमार ने यह देश प्रश्न-भरी दृष्टि से मेरे मुख पर देखा तो मैंने कहा, ‘‘महाराज! यह तो नियोग की सीमा का उल्लंघन हो गया है।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘जहाँ नियोग करने की स्वीकृति दी गई है, वहाँ पर यह भी लिखा है–‘‘एकमुत्पादमेय पुत्र्म न द्वितीय कथंचन।’’
‘‘जब महारानी अम्बिका के एक पुत्र हो चुका था, तो दूसरा पुत्र उत्पन्न करने के लिए न तो उनको विवश करना चाहिए था और न ही महर्षिजी को स्वीकार करना चाहिए था।’’
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