उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
उस दिन आयुक्त ने मुझसे पूछा था कि कब तक मैं अपने देश लौटने का विचार रखता हूँ और मैंने उत्तर दिया था कि मेरा विवाह सोभभद्र की लड़की से हो गया है और जब तक वह मेरे साथ चलने को तैयार नहीं होगी, तब तक मेरा यहीं रहने का विचार है इस पर आयुक्त ने गम्भीर होकर कह, ‘‘मुझको तुम्हारे अधिक काल तक यहाँ रहने के विषय में सुरराज से पूछना पड़ेगा’’ इस पर मैंने कह दिया था कि पूछ लें और यदि सुरराज मुझे यहाँ रहने की स्वीकृति नहीं देंगे तो मैं यहाँ से चल दूँगा।
मैं आशा करता था कि आयुक्तक एक-दो दिन में सुरराज को मेरे विषय में सूचना भेज देगा और देवलोक से उत्तर आने में मास लग जायेंगे।
इधर मोद के गर्भ ठहरने से मेरा वहाँ पड़े रहना मुझे व्यर्थ-सा प्रतीत होने लगा। साथ ही हस्तिनापुर से कोई समाचार न आने के कारण मैं समझ रहा था कि वहाँ की सेवा से मैं पृथक् कर दिया गया हूँ।
सुरराज के पास सूचना जाने से मैं यह समझने लगा था कि वहाँ से तो सन्देश आयेगा ही, उसका ही मुझे पालन करना चाहिए।
एक दिन मैं सोमभद्र के गृह के सम्मुख बैठा धूप सेंक रहा था और मोदमन्ती होने वाले बालक के लिए ऊनी कपड़े बुन रही थी कि हस्तिनापुर का एक सुभट्ट मेरे सामने आ खड़ा हुआ। मैंने पूछा, ‘‘क्या चाहते हो?’’
सुभट्ट ने कहा, ‘‘संजयजी से पृथक् में बात करना चाहता हूँ। मैं हस्तिनापुर से आया हूँ।’’
मोदमन्ती को वहीं छोड़ में उस सुभट्ट के साथ कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। उसने मुझको छिपाकर एक पत्र दे दिया और कहा, ‘‘इसका उत्तर कल उस झाड़ी में फेंक दीजियेगा। मैं समय पाकर ले जाऊँगा।’’
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