उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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मुझको चक्रधरपुर में आये एक वर्ष से ऊपर व्यतीत हो चुका था और यह काल एक दिन की भाँति व्यतीत हो गया। मैं कश्मीर की पूर्णावादी में घूमता रहा और मोदमन्ती मेरे साथ परछाईं की भाँति लगी रही। इस काल में हम एक रात भी पृथक्-पृथक् नहीं रहे थे।
जितना अधिक-और-अधिक हम परस्पर मिलते थे, उतना ही सोमभद्र और उसकी पत्नी मुझ पर प्रसन्न होते थे। वे मुझको बढ़िया-से-बढ़िया और पौष्टिक भोजन खाने को देते थे और मेरी प्रत्येक प्रकार की सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे।
मैं लगभग भूल-सा गया था कि मेरे कश्मीर में आने का क्या प्रयोजन है। दिन-रात मोदमन्ती की संगत मद्य के नशे की भाँति मस्तिष्क में खुमार उत्पन्न किये रहते थी। एक दिन मैं कश्मीर के देवता आयुक्तक से मिलकर आया तो माणविका ने मुझको एक ओर ले जाकर कहा, ‘‘संजय! मोद के गर्भ स्थापित हो गया है। अब बचपन छोड़ मानवों की भाँति रहना चाहिए। वह अब मेरे साथ मेरे आगार में सोया करेगी।’’
इस समाचार ने झकझोर कर मुझे जगाया। मैं समझ गया कि अब मैं पिता बनने वाला हूँ, इस कारण मेरा उत्तरादायित्व बढ़ गया है। इस उत्तरदायित्व का विचार आते ही, मेरे मन में चिन्ता उत्पन्न हुई कि हस्तिनापुर वालों का क्या हुआ और देवलोक से और धन आया है अथवा नहीं?
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