उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ, लगभग ऐसा ही मेरे साथ हुआ था। मुझको माणविका के पिता के गृह में रहते अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक रात मेरे आगार में मेरी शैया पर बैठी वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। वही बात हुई और हमारा विवाह हो गया। तब से वह मेरी निष्ठावान पत्नी है।
‘‘वास्तव में हमारी नागकन्याओं के रक्त में यह बात है। जब उनकी विवाह की इच्छा होती है और वे किसी पुरुष के सम्मुख यह प्रस्ताव रखती है, पुरुष इन्कार करने की शक्ति नहीं रखता।’’
‘‘पर क्या’’, मैंने पूछ लिया, ‘ऐसा कभी नहीं हुआ कि लड़की प्रस्ताव करे और पुरुष किसी अन्य से वचनबद्ध होने के कारण उसके प्रस्ताव को ठुकरा दे?’’
‘‘ऐसा बहुत कम होता है। हमारी जाति की लड़कियों में विवाहित और अविवाहित पुरुष को पहचानने की शक्ति बहुत प्रबल होती है। परन्तु जहाँ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है, वहाँ लड़की या तो आत्महत्या कर लेती है, अन्यथा पुरुष की हत्या कर डालती है।’’
मैं इस बात को सुन काँप उठा। परन्तु पिछली रात के आनन्द-दायक व्यवहार को स्मरण कर मैं सन्तुष्ट था। मैंने सोमभद्र के चरण स्पर्श कर कहा, ‘‘आप मेरे भी पिता है और मोद के भी। इस कारण हम दोनों को आशीर्वाद दीजिये, जिससे हमारा जीवन आनन्दमय व्यतीत हो।’’
सोमभद्र ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मोद को भी आने दो। दोनों को आशीर्वाद दूँगा।’’
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