उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ, आज तो कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे गाय और बैलों में होता है। परन्तु हम मनुष्य है, इस कारण आज के पश्चात् हमारा व्यवहार भिन्न हो जायेगा। गाय और बैल तो मिलन के पश्चात् एक-दूसरे को भूल जाते हैं और फिर सन्तान गाय की होती है, बैल की नहीं। मनुष्यों में इससे भिन्न होता है। एक बार सम्बन्ध बना तो वह स्थायी होता है और सन्तान पिता तथा माता दोनों की होती है।’’
यह कश्मीर की रमणीक घाटी का प्रभाव था अथवा वहाँ की वायु में कुमकुम तथा कस्तूरी की मादक सुगन्धि का, कहना कठिन है। मैं उसके आग्रह को न नहीं कर सका और उस रात जब मैं अपने शयनागार में गया तो फूलों में श्रृंगार किये वह मेरी शैया पर बैठी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी।
मेरे चक्रधरपुर में पहुँचने के कुछ ही दिनों में मैं एक विवाहित युवक हो गया। अगले दिन जब मैं अपने आगार से निकला तो मोदमन्ती अभी सो रही थी। मैंने बाहर निकल आगार का द्वार बन्द कर दिया, जिससे मेरी शैया पर सोये हुए उसको उसके माता-पिता न देख लें। परन्तु मेरे बाहर निकलते ही उसकी माँ कमरे में चली गई और सोमभद्र मेरे मुख पर देखते हुए पूछने लगा, ‘‘सुनाओ संजय! प्रसन्न हो?’’
‘‘हाँ, आपकी कृपा है।’’
‘‘मेरी? तुम्हारा अभिप्राय मेरी लड़की मोदमन्ती से है न? ठीक है न?’’
‘‘वह आपका एक अंश मात्र ही तो है।’’
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