उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तो कैसे होगा?’’
‘‘मैं आज रात से आपके आगार में सोया करूँगी। बस हमारा विवाह हो जायेगा।’’
‘‘बस?’’
‘‘और क्या?’’
‘‘तुम्हारे पिता क्या कहेंगे?’’
‘‘वे न नहीं करेंगे। मैं जानती हूँ कि आपको अपना पुत्र-तुल्य मानते हैं।’’
मैं गम्भीर विचार में पड़ गया और विचार करने लगा कि यह लड़की अति सुन्दर है, इस पर भी बिना विवाह-संस्कार के सहवास कुछ भला प्रतीत नहीं हो रहा था। इस समय वह उत्सुकता से मेरे मुख की ओर देख रही थी। मेरे मुख की कठोर मुद्रा ढीली पड़ती जाती थी। कारण यह था कि मेरा निर्णय उसके पक्ष में होता जाता था।
मैं अभी अपने मन की बात कहने वाला था कि वह प्रसन्नता में उबलती हुई बोल उठी, ‘‘तो ठीक है न?’’
मैंने पूछा, ‘‘क्या ठीक है?’’
‘‘हमारे विवाह का निर्णय। देखिये, जब भ्रमण के पश्चात् हम घर पहुँचेंगे तो मैं अपनी माँ को बता दूँगी कि हम दोनों आज रात्रि विवाह कर रहे हैं। वे पिताजी को बता देंगी और फिर आज हमारी सुहागरात होगी।’’
‘‘यह तो कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है जैसे पशु करते हैं।’’
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