उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
उसके जाने के पश्चात् मैं मोदमन्त्री के पास आकर बैठ गया। मेरे मुख पर गम्भीर भाव देख उसने पूछा, ‘‘क्या बात थी?’’
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि मुझको लौटना पड़ेगा।’’
‘‘नहीं, मैं आपको लौटने नहीं दूँगी। हस्तिनापुर यहाँ से अच्छा स्थान है क्या?’’
‘‘नहीं मोद! जहाँ तुम तो, वहाँ से अच्छा स्थान तो सँसार-भर में नहीं हो सकता।’’
‘‘यह प्रशंसा रहने दीजिये। यह सुभट्ट कौन था?’’
‘‘यह हस्तिनापुर राज्य का सेवक था। राजकुमार हस्तिनापुर ने मुझको सेवा में लेने का प्रस्ताव किया है। मैंने इसको कल तक उत्तर देने का वचन दिया है।’’
‘‘क्या मिलेगा आपको?’’
‘‘इस सुभट्ट का कथन है कि पाँच सहस्त्र स्वर्ण प्रति वर्ष मिला करेंगे।’’
‘‘पांच सहस्त्र स्वर्ण? आप इतने धन में क्या करेंगे? यदि आपको इस राज्य में कोई कार्य मिले मो क्या वेतन लेंगे?’’
मैं हँस पड़ा। हँसकर मैंने कहा, ‘‘मुझको यहां के आयुक्तक ने निकल जाने का आदेश दिया है। मैंने उससे कहा था कि मेरा सोमभद्रजी की सुपुत्री से विवाह हो गया है और मैं उसको छोड़कर नहीं जा सकता। इसपर उसने कहा है कि मैं यहां केवल सुरराज की स्वीकृति से रह सकता हूँ। अतः सुरराज से स्वीकृति के लिए पूछा गया है। अभी उनका उत्तर नहीं आया। यदि उनकी स्वीकृति आ गई तो मैं यहां राज्य की कोई सेवा लेने का यत्न करूँगा अन्यथा यहाँ से जाना होगा।’’
|