उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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सोमभद्र मुझको अपने घर ले गया। उसका मकान पहाड़ी पर कुछ ऊँचाई पर था। मार्ग पर चलते हुए उसने कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी और मैं, सहपाठी थे। हम दोनों उपनिषद पढ़ा करते थे। एक दिन गुरुजी को पता चल गया कि मैं नाग जाति से हूँ और गुरुजी ने मुझको पढ़ाना बन्द कर दिया। उस विद्यालय में एक सौ से ऊपर विद्यार्थी थे। सबने मेरा बहिष्कार कर दिया, परन्तु तुम्हारे पिता ने मुझको कहा कि जो कुछ वे पढ़कर आया करेंगे मुझको पढ़ा दिया करेंगे। मैं विद्यालय से कुछ अन्तर पर, एक गृह में, जो नागों का ही था, रहने लगा और गवल्गण नित्य वहाँ आकर मुझे पढ़ाने लगा। इस प्रकार यह क्रम वर्षों चलता रहता। साहित्य, पुराण, दर्शनशास्त्रादि अनेक विषय मैंने उससे पढ़े।
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि गवल्गण का उस नाग के घर आना प्रकट हो गया। उस पर यह सन्देह किया गया कि वह उस नाग की सुन्दर कन्या पर मोहित है। इस पर उसकी और नाग कन्या माणविका की चलते-फिरते हँसी होने लगी। गवल्गण इससे उचाट हो गया और एक दिन हम दोनों वहाँ से चले आए। माणविका वास्तव में मुझसे प्रेम करने लगी थी और वह मेरे साथ चली आई।’’
‘‘तुम्हारे पिताजी तो हरिद्वार चले गये और वहाँ उनका विवाह हो गया। मैं चक्रधरपुर में, जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे, माणविका के साथ चला आया। पीछे मैं यहाँ के अयुक्तक का मन्त्री नियुक्त हो गया और तब से इसी पद पर कार्य कर रहा हूँ।’’
‘‘मैं तुम्हारे पिताजी का अत्यन्त आभारी हूँ। उनकी कृपा से ही मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने वर्त्तमान जटिल कार्य को सफलतापूर्वक चला रहा हूँ।’’
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