उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मुझको तुम्हारे साथ किये गए कठोर व्यवहार पर लज्जा लग रही है।’’
जब हम गृह पर पहुँचे तो उनकी लड़की मोदमन्ती द्वार पर खड़ी अपने पिता की प्रतीक्षा कर रही थी। कदाचित् वह लपककर अपने पिता के गले से लिपट जाती, परन्तु एक उपस्थिति युवक को साथ देख, चुपचाप मेरा मुख देखती रह गई। पिता ने बाँहें फैलाकर कहा, ‘‘आज गले नहीं मिलोगी मोद?’’
वह संकोच में पिता के गले लगी और पिता ने उसका माथा-चूम कर उसको प्यार किया। इससे मोदमन्ती का मुख लाल हो गया और वह गृह के भीतर चली गई।
मुस्कराते हुए सोमभद्र ने कहा, ‘‘यह मेरी एक ही सन्तान है और मुझको अति प्रिय है। अभी तुम इसकी माँ को देखोगे, फिर बताना कि दोनों में कौन अधिक सुन्दर है? मैं तो निर्णय नहीं कर सका।’’
मैं हँस पड़ा और कहना चाहता था कि सौन्दर्य की तुलना में कठिनाई नहीं, प्रत्युत नेह की तुलना में है। परन्तु इसी समय सोमभद्र की पत्नी चली आई और हाथ जोड़ नमस्कार कर प्रश्न-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखने लगी। मैं अपना परिचय देना चाहता था, परन्तु सोमभद्र मेरे कहने से पूर्व कहने लगा, ‘‘यह मेरे मित्र गवल्गण के सुपुत्र संजय है। स्मरण आया?’’
‘‘ओह!’’ यह कह माणविका ने मेरा माथा चूमा और मेरी पीठ पर हाथ फेरती हुई भीतर ले गई। लड़की अभी तक संकोच में एक कोने में खड़ी थी। इस समय सोमभद्र ने बता दिया कि मैं यहाँ भ्रमण के लिए आया हूँ और उनके घर पर ही ठहरूँगा।
इसके पश्चात् मेरे लिए स्थान तैयार करना, मुझको भोजन खिलाना तथा भ्रमण के लिए ले जाना मोदमन्दी का कर्त्तव्य हो गया। मेरे वहाँ पहुँचने के कुछ दिन पश्चात् जब मैं और मोदमन्ती, उनकी अपनी नौका में विहार कर रहे थे, तो मोदमन्ती ने पूछा, ‘‘आप विवाहित हैं क्या?’’
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