उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैं मुस्कराया और नमस्कार कर उस गृह से बाहर निकल आया। नाविक से मैंने सोमभद्र के गृह का पता पूछा तो वह मेरा मुख देखने लगा। मैंने पूछ लिया, ‘‘क्यों? इस व्यक्ति का गृह नहीं जानते क्या?’’
‘‘जानता हूँ। आप अभी उसी व्यक्ति से तो मिलकर आ रहे हैं।’’
मैं भौचक्का हो नाविक का मुख देखने लगा। मैंने कहा, ‘‘परन्तु यह तो नागवंशीय है?’’
‘‘जी हाँ, मैं भी नागवंशीय हूँ। हमने आर्यों की अधीनता छोड़ देवताओं की अधीनता स्वीकरा कर ली है। सोमभद्र यहाँ के आयुक्तक का सहकारी मन्त्री है।’’
मैं कुछ काल तक विचार कर प्रतिहार के पास आया और उसको अपने पिता का पत्र देकर कहने लगा, ‘‘यह श्री सोमभद्रजी के पास ले जाओ।’’
वह प्रतिहार मेरे इस व्यवहार पर कुछ विस्मित-सा होकर, पत्र लेकर भीतर चला गया। कुछ ही काल पश्चात् वह वृद्ध गृह से बाहर निकला और धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरता हुआ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने अब उसके चरण-स्पर्श किये और मुस्कराता हुआ उसके सामने खड़ा हो गया। मुझको सिर से पाँव तक देख, सोमभद्रजी ने कहा, ‘‘तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम गवल्गणजी के पुत्र हो?’’
‘‘जी, मैंने प्रतिहार को अपना नाम, पिताजी का नाम आदि सबकुछ बता दिया था।’’’
‘‘उसने तो कहा था कि आप मधुवन के महर्षि गुणवान के पुत्र है।’’
‘‘मैं समझ गया कि यहाँ शिक्षा का अभाव है और पूर्ण भ्रम का यही कारण है। इस पर भी मैंने बात यही समाप्त करने के लिए कह दिया, ‘‘उसके सुनने में भूल हुई है।’’
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