उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तो आप ही मेरे मित्र बन जाइए।’’
वह वृद्ध हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘मैं यहाँ के कारावास का अध्यक्ष हूँ। मेरी मित्रता तो वहाँ रहने वालों के लिए ही हो सकती है।’’
‘‘मैं तो वहाँ चलकर रहने के लिए भी तैयार हूँ। परन्तु मुझको यह देश घूमकर देखने की स्वीकृति मिलनी चाहिए।’’
‘‘वहाँ रहने वालों के लिए ऐसी स्वीकृति नहीं मिल सकती।’’
‘‘तो आप वहाँ नहीं रहते।’’
‘‘रहता होता तो बाहर कैसे आ सकता? वहाँ रहने के इच्छुक को कोई भारी अपराध करना चाहिए। वहाँ काम भी करना पड़ता है।’’
‘‘अपराध तो मैं करूँगा नहीं। मैं तो धार्मिक जीव हूँ। जहाँ आप रहते हैं, वहीं मुझको ठहरा सकते हैं।’’
‘‘नहीं, हस्तिनापुर से आये व्यक्ति को हम अपने घर में नहीं रख सकते। वे परिवार की लड़कियों को बिगाड़ देते हैं।’’
‘‘मैं वचन देता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करूँगा।’’
‘‘हस्तिनापुर वालों के वचनों का विश्वास नहीं होता। आप अब जा सकते हैं। मुझको और भी कार्य है।’’
‘‘अच्छी बात है। मैं यत्न करता हूँ कि कोई मित्र मिल जाये।’’
‘‘ठीक है। यदि सायंकाल तक कोई मित्र न मिला चक्रधरपुर से बाहर निकल जाना। रात के समय तुम घूम नहीं सकोगे।’’
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