उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तुम आयुक्तक महोदय को मेरा परिचय देकर कहो कि मुझको भेंट की स्वीकृति दीजिये।’’
‘‘तो परिचय दीजिये।’’
मैंने अपना नाम, अपने पिता का नाम और उनके आश्रम का स्थान बताकर कहा, ‘‘इस पर भी इस समय तो मैं हस्तिनापुर से ही आ रहा हूँ।’’
प्रतिहार सीढ़ियाँ चढ़, एक उपग्रह में चला गया। कुछ काल के पश्चात् वह बाहर आया और मुझको उस उपगृह में ले गया, जहाँ वह स्वयं गया था।
एक वृद्घ व्यक्ति वहाँ बैठा था। मैंने उसको आशीर्वाद दिया तो वह मुस्कराया। मुझको उसके मुस्कराने में कुछ प्रयोजन प्रतीत नहीं हुआ। मैंने पंथागार में रहने की अपनी इच्छा प्रकट की तो उसने कहा, ‘‘जब तक आप अपने यहाँ आने का प्रयोजन नहीं बताते, तब तक किसी भी पंथागार में रहने की स्वीकृति नहीं मिल सकती।’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘मैं तो भ्रमणार्थ आया हूँ।’’
‘‘तब आपको किसी मित्र के यहाँ ठहरना होगा।’’
‘‘मेरा यहाँ कोई परिचित नहीं है।’’
‘‘तो तुम यहाँ नहीं रह सकते।’’
‘‘क्या मैं किसी को मित्र बना सकता हूँ?’’
‘‘बना सकते हो।’’
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