उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
गन्धमादन पर्वत से सीधा पैदल मार्ग महर्षि मार्तण्ड के आश्रम तक था। वहाँ से मधुमती नदी द्वारा नौका से जाया जाता था। मैंने नौका पर सवार हो चक्रधरपुर में प्रवेश किया और नगर की शोभा, जैसी नौका पर बैठे दिखाई देती थी, पर मोहित हो मन्त्र-मुग्ध देख रहा था कि इस समय नाविक ने मेरा ध्यान भंग किया और पूछ लिया, ‘‘कहाँ उतरेंगे आप?’’
मैंने उससे पूछा ‘‘यहाँ को पंथागार नहीं है क्या?’’
‘‘है, परन्तु उनमें निवास प्राप्त करने के लिए यहाँ के आयुक्तक से स्वीकृति प्राप्त करनी आवश्यक है।’’
‘‘तो आयुक्तक के निवास-गृह को ले चलो।’’
नाविक ने नौका को एक विशाल घाट की सीढ़ियों पर लगाकर एक प्रतिहार की ओर तंकेत कर दिया।
मैंने प्रतिहार से कहा, ‘‘मैं हस्तिनापुर से आया हूँ और यहाँ पंथागार में रहने की स्वीकृति चाहता हूँ।’’
‘‘यहाँ किस कार्य से आये हैं।’’
‘‘केवल भ्रमणार्थ।’’
‘‘आपको पंथागार में स्थान नहीं मिल सकता।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इसलिए कि आप हस्तिनापुर से आये हैं।’’
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