उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
कामभोज से लेकर नर्मदा के तट तक चन्द्रवंशीय प्रभुओं का आधिपत्य हो चुका था। इस पूर्ण देश में छोटे-छोटे राज्य थे और उनमें चन्द्रवंशीय राजा राज्य करते थे। ये सब राज्य भरत, अर्थात् हस्तिनापुर के कुरु-वशीय राजा को अपना सम्राट मानते थे। हस्तिनापुर के सम्राट् इतने शक्तिशाली थे कि वे पूर्ण चन्द्रवंशीय सुभट्टों, सामन्तों, राजाओं और महाराजाओं को अपने अधीन रखे हुए थे।
यद्यपि चन्द्रवंशीय-संस्कृति असुरों और दानवों की संस्कृति से श्रेष्ठ थी, इस पर भी उन्होंने दानवों के गुरु शुक्रार्चार्य की धर्म-संस्कृति को अपनाया था और लगभग उसी के अनुसार पूर्ण चन्द्रवंशीय साम्राज्य में राज्य चलता था।
जब चन्द्रवंशीय क्षत्रियों ने आर्यावर्त पर राज्य स्थापित कर लिया तो उन्होंने अपना आचार-विचार वहाँ की प्रजा पर थोपना आरम्भ कर दिया। नगरों में तो प्रायः लोग उस आचार-विचार को स्वीकार करने लग गये थे, परन्तु ग्रामों में अभी भी वैदिक आचार-विचार की मान्यता थी।
यों तो दोनों लोग आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म पर विश्वास रखते थे, वेद-वेदांग को मानते थे, परन्तु दोनों के व्यवहार में और वेदों का अर्थ लगाने में अन्तर था।
जहाँ तक प्रजा और राज्य का सम्बन्ध था, दोनों में भारी अन्तर था। राज्य के अर्थों में मतभेद के ही कारण था कि शान्तनु ने सत्यवती से विवाह करने के लिये राज्य को गिरवी रख दिया था। सत्यवती भी अपनी सन्तान के हाथ से राज्य छोड़ना नहीं चाहती थी।
मैं जब चक्रधरपुर पहुँचा तो नगर के सौन्दर्य को देखकर चकित रह गया। मधुमती नदी के एक तट पर तो केशर की क्यारियाँ थीं और दूसरे तट पर घाटों की सीढ़ियाँ और उनके ऊपर ऊँचे-ऊँचे गृह, मन्दिर आदि अत्यन्त शोभायमान दृश्य उपस्थित कर रहे थे।
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