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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


मैं दो दिन पिताजी के आश्रम में ठहर, कश्मीर के लिए चल पड़ा। मार्ग-भर मैं विचार करता हुआ जा रहा था कि वहाँ पहुँचकर मैं किस प्रकार हस्तिनापुर से सम्पर्क स्थापित करूँगा। सबसे अधिक सन्तोष-जनक बात यह थी कि देवेन्द्र की ओर से भी मुझे कश्मीर जाने की स्वीकृति मिल गई थी। साथ ही मेरा देवेन्द्र की सेवा में कार्य करने और हस्तिनापुर में प्रविदारी-कार्य करने का पिताजी ने विरोध नहीं किया था।

इस पर भी मेरे मन में अपने कार्य की श्रेष्ठता पर सन्देह बना हुआ था। इसी कारण जहाँ मैं वह कुछ कर रहा था जो सुरराज करना चाहते थे, वहाँ सदैव उसके विपरीत भी सम्मति देता आ रहा था। कठिनाई तो यह थी कि जो व्यवहार मैं राज्य और प्रजा के हित में मानता था और जिसके करने से मैं समझता था कि हस्तिनापुर का राज्य सुदृढ़ होगा, वही कार्य राज्याधिकारियों द्वारा स्वीकार नहीं होता था।

जब मैं पिताजी के आश्रम में अर्थशास्त्र का अध्ययन कर रहा था, तो अपने मन में प्रजा तथा मनुष्य-मात्र के हित की कई योजनाएँ बनाये हुए था। उन योजनाओं से जन-साधारण के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की वृद्धि निहित थी, परन्तु हस्तिनापुर राज्य में उन योजनाओं पर कार्य करना तो दूर, उनके सुनने की लालसा भी किसी में नहीं थी। मैं देवलोक पहुँचा तो वहाँ की अवस्था देखने में आदर्श परन्तु परिणाम में नितान्त घातक होने पर भी मुझको व्यर्थ का समझ हस्तिनापुर का मार्ग दिखा दिया गया। हस्तिनापुर में मेरा मूल्य भोजन-वस्त्र मात्र समझ लिया गया। तपोवन और कश्मीर जाने के लिए मार्ग-व्यय भी तो नहीं दिया गया।

जितना सुचारु रूप से कार्य, देवव्रत के अपने गृह में होता था, उसको देख मैं यह स्वप्न में भी विचार नहीं कर सका था कि मुझको मार्ग-व्यय देना वे भूल गये हैं। मुझको पिताजी का अनुभव ठीक ही प्रतीत ही रहा था कि मुझे हस्तिनापुर से दूर करने के लिए ही यहाँ भेजा जा रहा है। कश्मीर देवलोक के अधीन था और देवलोक का हस्तिनापुर वालों से मित्रता का सम्बन्ध था।

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