उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘देखो संजय!’’ पिताजी में कहा, ‘‘पूर्व-जन्म के कर्म और वर्त्तमान जन्म की शिक्षा-दीक्षा मुख्य हैं। इनमें भी पूर्व-जन्म के कर्म, अर्थात् भाग्य अधिक प्रभावशाली होता है। वर्त्तमान जन्म की शिक्षा-दीक्षा विरोधी होने पर, भाग्य की तीव्रता को कम कर सकती है, मिटा नहीं सकती। उदाहरण के रूप में यदि भाग्य से मनुष्य को रोगी होना है और शिक्षा-दीक्षा से वह अपना स्वास्थ्य ठीक रखने का यत्न करता है, तो वह कुछ-न-कुछ सीमा तक अपने रोग की तीव्रता को और उससे उत्पन्न दुःख को कम कर सकता है। यदि भाग्य से कोई मनुष्य स्वस्थ तथा निरोग रहने वाला है और अपनी शिक्षा के कारण वह ऐसा जीवन व्यतीत करता है, जिससे रोग उत्पन्न हों, तो वह अपने स्वास्थ्य को बिगाड़ सकता है।
‘‘परन्तु संस्कार और पैतृक प्रभाव भाग्य की तीव्रता और वर्त्तमान जन्म के व्यवहार को अपने साँचें में ढालने में हाथ बँटाते हैं।’’
‘‘अब यही कृष्ण द्वैपालन का उदाहरण लो। इसके पूर्व-जन्म के कर्मों का फल क्या है, मैं नहीं जानता। परन्तु इसके पैतृक प्रभाव और इसके संस्कारों के प्रभाव का ज्ञान तो हो ही सकता है। इनकी माँ है सत्यवती, जो पराशरजी के फुसलाने पर आत्मसमर्पण कर बैठी थी। पराशर कामोन्माद में सत्यवती की दुर्गन्ध को भी भूल गये थे। सत्यवती और सत्यवती के पालन करने वाला निषादराज राज्य का लोभी था। उसको इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि वह विचार करे कि उसकी लड़की की शिक्षा-दीक्षा भारत के सम्राट् की माँ बनने के लिए उपयुक्त नहीं है।
‘‘इन संस्कारों का प्रभाव देख लो। राज्य तथा प्रजा के कल्याण की बात किसी के मन में नहीं है। सत्यवती का वंश चलना चाहिए। यह बात मुख्य है। इससे न राज्य रहेगा, न धर्म।’’
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