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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘उनका विचार है कि कौरव-वंश नाश को प्राप्त हो रहा है। मुझको आज्ञा है कि इस ह्नास की गति को तीव करूँ, जिससे देश में और अधिक पाप न फैले।’’

‘‘यह सब कार्य तुम वहाँ किस प्रकार कर रहे हो?’’

‘‘मैंने वहाँ पर सेवा-कार्य स्वीकार कर लिया है। राजकुमार देवव्रत ने मुझको अभी भोजन, वस्त्र और निवास-स्थान देना स्वीकार किया है। हाँ, जब कोई कार्य सम्पन्न करूँगा, तब विशेष पारिश्रमिक मिलेगा। अभी तक मुझको दो कार्य करने के लिए अर्पित किये गए थे। उनमें से एक कार्य मैंने स्वीकार नहीं किया और दूसरा कार्य पूर्ण कर आया हूँ। मुझको विचित्रवीर्य की पत्नियों से नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करने को कहा गया था। मैंने यह स्वीकार नहीं किया। दूसरा कार्य था श्रीकृष्ण द्वैपायन को इसी कार्य के लिए तैयार कर हस्तिनापुर भेजना। यह दूसरा कार्य सुगमता से सम्पन्न हो गया है। द्वैपायनजी ने यह कार्य सहर्ष स्वीकार कर लिया है।’’

यह सुनकर पिताजी खिलखिलाकर हँस पड़े। मैं उनके हँसने का अर्थ समझ नहीं सका। उन्होंने स्वयं ही इसका कारण बता दिया। वे बोले, ‘‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।

‘‘श्रीकृष्ण द्वैपायन सत्यवती का पुत्र है। यद्यपि महर्षि पाराशर का बीज होने से वह धुरंधर विद्वान तथा वेद-वेदांग पारंगत हुआ है, परन्तु अपनी माँ की मिट्टी से बना होने के कारण अपने वंश की वृद्धि के लिए अत्यन्त लालायित है। चन्द्रवंशीय महाराज उपरिचर बसु के वीर्य से होने के कारण सत्यवती और फिर सत्यवती से कृष्ण द्वैपायन अपनी इन्द्रियों के सुख के लिये पूर्ण संसार का बलिदान करने की भावना पाये हुए हैं।’’

‘‘पिताजी!’’ मैंने जिज्ञासा भाव में पूछा, ‘‘पैतृक प्रभाव, संस्कार, पूर्व-जन्म के कर्म और वर्त्तमान जन्म की शिक्षा-दीक्षा इन सब में कौन-सी बात हमारे व्यवहार की रूपरेखा बनाती है?’’

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