उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘देखों ऋषिपुत्र! कोई-न-कोई व्यक्ति राज्याधिकारी बनेगा ही। वह विचित्रवीर्य का पुत्र होगा, अथवा किसी अन्य का, यह विचारणीय नहीं। इस कारण मैं अपनी सन्तान के राज्याधिकारी बनने को बुरा नहीं मानता।’’
‘‘तब तो ठीक है महाराज! आप महर्षि हैं। आपने धर्मशास्त्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन किया है। आप इस विषय में मुझसे अधिक ज्ञान रखते हैं।’’
इस प्रकार वार्तालाप समाप्त कर मैं गन्धमादन पर्वत की ओर चल पड़ा। अपना रथ मैंने कृष्ण द्वैपायनजी को दे दिया था।
मैं जब पिताजी के आश्रम में पहुँचा तो उन्होंने बताया कि देवेन्द्र ने दस सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ उनके पास भेजी हैं और उन्होंने रख तो ली है, परन्तु उनका उपयोग नहीं किया। उनको पता नहीं था कि यह स्वर्ण किस उपलक्ष्य में आया है?
पिताजी का कहना था कि इन्द्र महा कंजूस है और व्यर्थ में स्वर्ण नहीं लुटाता। इस कारण इन मुद्राओं के भेजने में क्या कारण है, वे अभी तक नहीं समझ सके थे। मैंने इसका स्पष्टीकरण कर दिया, ‘‘मैंने इन्द्र का सेवा-कार्य स्वीकार कर लिया है। यह मेरे वेतन का धन है।’’
‘‘क्या कार्य करना पड़ता है तुमको?’’
‘‘मुझको हस्तिनापुर में, कुरु के वंशजों में, सुरराज की नीति चलाने के लिए भेजा गया है।’’
‘‘सुरराज की नीति क्या है?’’
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