उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मुझे विस्मय इस बात का हो रहा था कि राजकुमार की आज्ञा होंठों से निकले अभी आधी घड़ी भी नहीं हुई थी कि उसकी सूचना देवलोक में पहुँच गई और फिर वहाँ से आज्ञा भी आ गयी। इससे भी विचित्र बात यह थी कि पत्र पर सुरराज की अपनी मुद्रा अंकित थी।
मैं अभी विस्मय में उस पत्र को देख रहा था कि दूत कहने लगा, ‘‘ऋषिपुत्र! आप मानवों को बहुत-सी बातों का ज्ञान नहीं है। तभी तो आप विस्मय कर रहे हैं। मैं देवलोक के राजदूत का अनुचर हूँ। हम इस राजप्रासाद में हो रही प्रत्येक घटना से परिचित रहते हैं। और उसकी सूचना देवलोक में दिव्य यन्त्रों द्वारा भेजके रहते हैं। उसी यन्त्र द्वारा यह पत्र आया है।’’
‘‘परन्तु यह मुद्रा?’’
‘‘यह भी उसी यन्त्र द्वारा देवलोक में लगाये जाने पर यहाँ अंकित हो जाती है।’’
मैंने कह दिया–‘मैं सुरराज की आज्ञा का पालन करूँगा।’’
अगले दिन मैं एक तपोवन के लिए चल पड़ा।
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