उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ, मैंने तो इस भेंट को किसी से भी न कहने का वचन दिया हुआ है।’’
‘‘वे आपको सूतपुत्र होने से शूद्र मानती हैं?’’
‘‘यह ठीक है। मैं सूतपुत्र हूँ। मेरे साथ नियोग कराने से उनके परिवार में निम्न जाति का रक्त चला जायेगा। यह भी तो एक प्रबल कारण है कि यह नियोग नहीं होना चाहिए।’’
‘‘परन्तु महारानीजी ऐसा नहीं समझतीं। वे आपको ऋषि-पुत्र मानती हैं और आपको ब्राह्मण समझती हैं।’’
मुझे ध्यान हो आया कि वे महाराज काशी की पुत्री है। काशिराज वैदिक आचार-विचार के अनुयायी हैं। यह विचार मन में आते ही मैंने उस दासी से पूछ लिया, ‘‘परन्तु इस धारणा से कि सूतपुत्र ऋषि तो हो सकता है चन्द्रवंशीय नहीं हो सकता। यह वैदिक धारणा है। यदि वे ऐसा मानती है तो इस नियोग के लिए क्यों तैयार है? यह तो कोई अच्छी बात नहीं।’’
‘‘दोनों महारानियाँ,’’ दासी ने गम्भीर भाव धारण कर कहा, ‘‘नियोग को पसन्द नहीं करतीं, परन्तु राजमाता परिवार चलाने के लिए इतनी उत्सुक है कि वे महारानियों की भावनाओं को कुचल डालना चाहती हैं। जब महारानी नियोग से इन्कार करती हैं, तो राज माता रुदन करती है, छाती पीटने लगती हैं और अपने बाल नोंचने आरम्भ कर देती हैं। इससे विवश हो उनको मानना पड़ रहा है। अब राजमाता कह रही हैं कि नियोग महर्षि कृष्ण द्वैपायन से हो। इस कारण महारानी अम्बिका ने यह सन्देश भेजा है कि यदि आप स्वीकार करें तो वे राजमाता को मना लेंगी।’’
‘‘देखो मर्यादा! तुम महारानीजी से मेरा प्रणाम कहना और उनको बताना कि मैं उनमें माता की भावना रखता हूँ। इस कारण यदि उन्होंने इस विषय पर बात आगे चलाई तो मैं हस्तिनापुर छोड़कर चला जाऊँगा।’’
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