उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैं चाहता तो युक्ति कर देवव्रत को समझने का यत्न करता परन्तु सुरराज के आदेश को ध्यान में रख, कि देवव्रत को सन्तान उत्पत्ति करने नहीं देना है, मैंने अधिक आग्रह नहीं किया। मैंने केवल यह कहा, ‘‘तो जैसा आप लोग निर्णय करें, मुझको आदेश दे दिया जाये।’’
इतना कहकर मैं वहाँ से अपने निवास-गृह को लौट आया। अपने आगार में पहुँचा तो वहाँ एक सुन्दर युवती मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मैं प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगा तो वह कहने लगी,
‘‘आपसे एकान्त में बात करना चाहती हूँ।’’
‘‘आप आज्ञा करिये। यहाँ एकान्त ही है।’’
उसने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं महारानी अम्बिका की विश्वस्त दासी हूँ। मेरा नाम मर्यादा है। आप वचन दें कि यह वार्त्तालाप गुप्त रहेगा, तभी मैं कुछ कह सकूँगी।’’
मैंने विचार कर कहा, ‘‘हाँ, गुप्त रहेगा। कहिये।’’
‘‘महारानी आपसे नियोग करना चाहती हैं।’’
‘‘मुझसे?’’ मैं अवाक् रह गया।
‘‘आप युवा है, सुन्दर हैं, मेधावी हैं और निष्ठावान हैं।’’
‘‘यह सब तुमने उनको बताया है?’’
‘‘महारानी जी ने स्वयं आपको देखा है और आपकी प्रसंशा राजकुमार के मुख से सुनी है।’’
‘‘पर मैं नियोग नहीं करूँगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मैं इसको एक अस्वाभाविक कृत्य मानता हूँ।’’
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