उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
जब वे चले गये तो मैंने पूछा, ‘‘महाराज! मेरे लिए क्या आज्ञा है?’’
‘‘अभी कुछ नहीं।’’ राजकुमार ने कहा।
‘‘राजमाताजी ने कहा था कि मुझको एक-दो दिन में प्रस्थान कर देना चाहिए।’’
‘‘महारानियाँ नियोग के लिए तैयार नहीं हो रहीं।’’
‘‘मैं भी समझता हूँ कि महर्षि व्यास इस कार्य के लिए पसन्द नहीं किये जायेंगे।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मन की भावनाओं में युक्ति काम नहीं करती। महाराज! सम्भोग-क्रिया भावना का विषय है। इसका युक्ति से बहुत कम सम्बन्ध है।’’
मैंने और अधिक कहना उचित नहीं समझा। मैं नहीं जानता था कि महारानियों ने किन कारणों से व्यासजी को पसन्द नहीं किया था। मुझको चुप देख राजकुमार ने पूछा, ‘‘संजयजी! आपकी दृष्टि में कोई अन्य पुरुष है, जिसके महारानियों द्वारा पसन्द किये जाने की अधिक सम्भावना हो।’’
‘‘मैं महाराज! मैं एक जानना हूँ। यदि वह स्वीकार कर ले, तो आशा है महारानियाँ मान जायेंगी और वह धर्म-संगत भी होता।’’
‘‘कौन है वह?’’
‘‘श्रीमान् स्वयं इस योग्य हैं। शास्त्र में भी पति के भाई को देवर अर्थात् द्वितीय वर माना है।’’
‘‘राजमाता मुझको कह चुकी हैं, परन्तु मैं इसको अपने वचन-विरुद्ध समझता हूँ। साथ ही मैं अखण्डित ब्रह्मचर्य का पालन करना अपने लिए हितकर मानता हूँ।’’
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